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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [३५५ विश्वासघाती, जुपारी और धूर्त पुरुषों को राजपुरुषों के द्वारा पकड़वा कर ऊर्ध्वमुख गिराता है गिरा कर लोहदंड से मुख का उद्घाटन करता है अर्थात् खोलता है, मुख खोल कर कितने एक को तप्त -ढला हुआ ताम्र-तांवा पिलाता है, कितने एक को त्रपु, सीसक, चूर्णादि मिश्रित जल अथवा कलकल करता हुआ उष्णात्युष्ण जल और क्षारयुक्त तैल पिलाता है, तथा कितनों का उन्हीं से अभिषेक कराता है। कितनों को ऊध्वमुख अर्थात् सीधा गिरा कर उन्हें अश्वमूत्र, हस्तिमत्र यावत् एडों-भेडों का मूत्र पिलाता है । कितनों को अधोमुख गिरा कर घलघल शब्द पूर्वक वमन कराता है, तथा कितनों को उसी के द्वारा पीड़ा देता है । कितनों को हस्तान्दुकों, पादान्दुकों, हडियों, तथा निगड़ों के बन्धनों से युक्त करता है । कितनों के शरीर को सिकोड़ता और मरोड़ता है । कितनों को शृंखलाओं- सांकलों से बान्धता है। तथा कितनों का हस्तच्छेदन यावत् शस्त्रों से उत्पाटन कराता है। किननों को वेणुलताओं यावत् वल्करश्मियों-वृक्षत्वचा के चाबुकों से पिटवाता है। कितनों को उध्वमुख गिरा कर उनके वक्षःस्थल पर शिला और लक्कड़ धरो कर राजपुरुषों के द्वारा उस शिता तथा लक्कड़ का उत्कंपन कराता है। कितनों के तंत्रियों यावत् सूत्ररज्जयों के द्वारा हाथों और पैरों को बंधवाता है बन्धवा कर कूर में उलटा लटकाता है, लटका कर गोते खिलाता है तथा कितनों का असिपत्रों यावत् कलम्बचीरपत्रों से छेदन कराता है और उस पर क्षारयक्त तैल की मालिश कराता है। कितनों के मस्तकों, अवटुयों-घंडियों, जानुयों और गुल्फों-गिट्रों में लोहकीलों तथा वंशशलाकाओं को ठुकवाता है, तथा वृश्चिककण्टकों-विच्छू के कांटों को शरीर . प्रविष्ट कराता है । कितनों की हस्तांगुलियों और पादांगुलियों में मुद्गरों के द्वारा सूइय और दम्भनों को प्रविष्ट कराता है तथा भूमी को खुदवाता है । कितनों का शस्त्रों यावत् नहेरनों से अंग छिलवाता है और दर्भो-मूलसहित कुशाओं, कुशाओं-विना जड़की कुशाओं तथा आर्द्रचर्मों के द्वारा बंधवा देता है । तदनन्तर धूप में गिरा कर उन के सूखने पर चड़चड़ शब्द पूर्वक उनका उत्पादन कराता है। . इस प्रकार वह दुर्योधन चारकपाल इन्हों निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म बनाये हुए, इन्हीं में प्रधानता लिये हुए, इन्हीं को अपनी विद्या-विज्ञान बनाए हुए तथा इन्हीं दूषित प्रवृत्तियों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाये हुए अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन करके ३१ सौ वर्ष की परमायु को भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ । टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को उपलब्ध करना होता है । मोक्ष का एक मात्र साधन मार्ग है-धर्म । धर्म के दो भेद होते हैं। पहले का नाम सागार धर्म है और दसरे का नाम है-अनगार धर्म । सागार धर्म गृहस्थ धर्म को कहते हैं और अनगार धर्म साधुधर्म को । प्रस्तुत में हमें गृहस्थ-धर्म के पालक के सम्बन्ध में कुछ विचार करना इष्ट है । अहिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिये पाया जाता है, परन्तु गृहस्थ के लिए इन का सर्वथा पालन करना अशक्य होता है, गृहस्थ संसार में निवास करता है, अतः उस पर परिवार, समाज और राष्ट का उत्तरदायित्व रहता है। उसे अपने विरोधी-प्रतिद्वन्द्वी लोगों से संघर्ष करना पड़ता है, जीवन-यात्रा के लिए सावद्य मार्ग अपनाना होता है। परिग्रह का जाल बुनना होता है । न्याय मार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कहीं For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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