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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] स्त्रीय भाषा में निम्नोक्त हैं “ – जति गं भंते ! समणेां भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं दुहविवागाणं पंचम harer श्रयमठ्ठे पण्णत्तो, छट्टस् गं भंते ! अभयणस्स दुहविवागाणं सम भगवया महावीरेणं जाव संपत्त के अहे पण ते १-" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है यदि भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के पञ्चम अध्ययन का यह ( पूर्वोक्त ) अर्थ फरमाया है, तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख - विपाक के छठे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? [ ३४१ जम्बू स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में उनके पूज्य गुरुदेव श्रीसुधर्मा स्वामी ने जो कुछ कहना आरम्भ किया उसी को सूत्रकार ने एवं खलु जम्बू १ इत्यादि पदों द्वारा अभिव्यक्त किया है । जिन का अर्थ मूलार्थ में दिया जा चुका है और जो अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । “ अलंकारिक " इस पद का अर्थ सजाने वाला भी होता है, परन्तु वृत्तिकार ने " - अलंका रियकम्मं - " का क्षुरकर्म- क्षौरकर्म ( हजामत आदि बनाना) यह अर्थ किया है। इस पर से ज्ञात होता है कि चित्र नाम का एक नापित नाई था जो कि श्रीदाम नरेश के यहां रहता था और श्रीदाम नरेश का बड़ा कृपापात्र था । महाराज श्रीदाम चौरकर्म उसी से करवाया करते थे, इसीलिये चित्र को राजभवन में हरएक स्थान पर जाने आने की स्वतन्त्रता थी । वह बिना रोकटोक के जहां चाहे वहां जा आ सकता था । शय्यास्थान, भोजनस्थान मंत्रस्थान और श्रायस्थान आदि स्थानों तथा प्रासादादि की हर एक भूमिका - मंज़िल आदि में अपनी इच्छा के अनुसार श्राता जाता था अर्थात् उसे किसी प्रकार की रोकटोक नहीं थी । 66 है " सर्वस्थान, सर्वभूमिका और अन्तःपुर इन पदों का अर्थ पीछे पृष्ठ ३३३ पर लिखा जा चुका । तथा - दिरणावियारे ” ' इस पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में " - राज्ञानुज्ञातसंच. रणः, अनुज्ञातविचारणो वा -' इस प्रकार है अर्थात् दत्नविचार के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि १. १ - जिस को राजा की ओर से आने तथा जाने की आज्ञा मिली हुई हो । २- जिस को हर किसी से विवारविनिमय अथवा वार्तालाप करने की पूर्ण श्रज्ञा प्राप्त हो रही हो । i ८. “ अहोण० जाव जुवराया " यहां पठित जाव यावत पद से "- -पंडिपुराणपंचिंदियसरीरे से ले कर " कन्ते पियदसणे सुरूवे " यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ १२० पर दिया गया है । " - सामभेद दंड० - " यहां के बिन्दु से उवप्पयाणनीति सुष्प उत्तणयविहिन्नु - "इत्यादि पदों का परिचायक है। इन का वर्णन पृष्ठ २८४ पर किया जा चुका है। तथा मंत्रिपुत्र के सम्बन्ध में दिए गए “– अहोण० –”के बिन्दु से विवक्षित पाठ का वर्णन भी पृष्ठ १२० पर किया जा चुका है । प्रस्तुत सूत्रपाठ में मथुरा नगरी तथा भंडीर उद्यान आदि का नाम निर्देश किया गया है । इन से सम्बन्ध रखने वाला विशेष वर्णन अग्रिम सूत्र में किया जाता है - मूल - ' तेणं कालेणं तेणं समरणं सामी समोसढे । पारसा गया य निराश्रो जान गया For Private And Personal (१) छाया -- तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः । परिषद् राजा च निर्गतो यावद् गता, राजापि निर्गतः । तस्मिन् काले २ श्रमणस्य ज्येष्ठो यावद् राजमार्गमवगाढः, तथैव हस्तिन: अश्वान् पुरुषान्, च पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुषं पश्यति यावद् नरनारीसंपरिवृतम् । ततस्तं पुरुषं राजपुरुषाः तेषां
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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