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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र पश्चम अध्याय चढ़ाया जावेगा, उस में मृत्यु को प्राप्त हो कर वह रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा, वहां की भवस्थिति को पूरी करने के अनन्तर उस का अन्य संसारभ्रमण मृगापुत्र की भान्ति ही जान लेना चाहिये अर्थात् नानाविध उच्चावच योनियों में गमनागमन करता हुआ यावत् पृथिवीकाया में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर हस्तिनापुर नगर में मृग को योनि में जन्म लेगा । वहां पर भी वागुरिकों-शिकारियों से वध को प्राप्त होकर वह हस्तिनापुर नगर में ही वहां के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्म धारण करेगा । यहां से उस का उत्कान्ति मार्ग प्रारम्भ होगा, अर्थात् इस जन्म में उसे बोधिलाभ - सम्यकत्व की प्राप्ति होगी और वह मृगापत्रादि की भाति हो विकास मार्ग की ओर प्रस्थान करता हुआ. अन्त में निर्वाण पद को प्राप्त करके जन्म मरण से रहित होता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेगा। "-रयणप्पभाए० संसारो तहेव जाव पुढवीर०-" यहां के बिन्दु से पृष्ठ ८९ पर पढ़े गये "- पुढवीए उक्कोससागरोवमाठुइएसु जाव उववज्जिहिति- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । तथा-संसार शब्द ".-संसारभ्रमण -" इस अर्थ का परिचायक है और तहेव पद " मृगापुत्र की भान्ति संसारभ्रमण करेगा-" इस अर्थ का बोध कराता है । मृगापुत्र के संसारभ्रमण का वर्णन पृष्ठ ९३ पर किया जा चुका है । उसी संसारभ्रमण के संस्चक पाठ को जाव-यावत् पद से सूचित किया गया है । अर्थात् यावत् पद पृष्ठ ८९ पर पढ़े गए - से णं ततो अणंतरं उध्वहिता सरीसवेसुसे ले कर-वाउ, तेउ० आउ०- यहां तक के पदों का परिचायक है । तथा" पुढवीए०-" यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना पृष्ठ २७५ पर की जा चुकी है । तथा-पुत्तत्ताए०- यहां के बिन्दु से "-पच्चायाहिति से णं तत्थ उम्मुक्कवालभावे तहारुवाणं थेराणं अंतिते केवल-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए । इन का अर्थ पृष्ठ १८२ दर दिया जा चुका है। . "- बोहिं, सोहम्मे महाविदे हे० सिझिहिति ५ " इन पदों से विवक्षित पाठ का वर्णन चौथे अध्ययम के पृष्ठ ३१२ पर किया जा चुका है । पाठक वहीं से देख सकते हैं। प्रस्तुत कथा-संदर्भ में वृहस्पतिदत्त के पूर्व और पर भवों के सक्षिप्त वर्णन से मानवप्राणी की जीवनयात्रा के रहस्यपूर्ण विश्रामस्थानों का काफी परिचय मिलता है । वह जीवन की नीची से नीची भूमिका में विहरण करता करता, जिस समय विकासमार्ग की ओर प्रस्थान करता है और उस पर सतत प्रयाण करने से उस को जिस उच्चतम भूमिका की प्राप्ति होती है, उस का भी स्पष्टीकरण वृहस्पतिदत्त के जीवन में दृष्टगोचर हाता है । इस पर से मानव. प्राणी को अपना कर्तव्य निश्चित करने का जो सुअवसर प्राप्त होता है, उसे कभी भी खो देने की भूल नहीं करनी जाहिये । प्रारम्भ में श्री जम्बू स्वामी ने पांचवें अध्ययन के अर्थ को को सुनने के लिये श्री सुधर्मा स्वामो से जो प्रार्थना की थी, उस की स्वीकृतिरूप ही यह प्रस्तुत पांचवां अध्ययन प्रस्तावित हुआ है। इसी भाव को सूचित करने के लिये मूल में णिवेबो यह पद प्रयुक्त किया गया है। मिक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी विचार पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । पाठक वहीं देख सकते हैं । प्रस्तुत अध्ययन में निक्षेप पद से जो पाठ अपेक्षित है वह निम्नोक्त है "-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दुहविवागाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमह पएणते त्ति बेमि - " अर्थात् हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःख - For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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