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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्राकथन ] हिन्दीभापाटीकासहित (२७) २०- आहारकसंघातननामकर्म - इस कर्म के उदय से आहारक शरीर के रूप में परिणत पुलों का परस्पर सान्निध्य होता है । २१ - 2- तैजससंघातननामकर्म -- इस कर्म के उदय से तेजस शरीर के रूप में परिणत पुगलों का परस्पर सामीप्य होता है । २२- कार्मणसंघातननामकर्म -- इस कर्म के उदय से कार्मण शरीर के रूप में परिणत पुगलों का परस्पर सान्निध्य होता है । २३- श्रदारिकप्रदारिकबन्धननामकर्म - इस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत औदारिक पुलों के साथ गृह्यमाण औदारिक पुगलों का परस्पर सम्बन्ध होता है । २४- ४- औदारिक तैजसबन्धननामकर्म -- इस कर्म के उदय से औदारिक दल का तैजस दल के साथ सम्बन्ध होता है । २५- प्रदारिककार्मणबन्धननामकर्म - इस कर्म के उदय से श्रदारिक दल का कार्मण दल के साथ सम्बन्ध होता है । २६-क्रियवैक्रियबन्धननामकर्म- - इस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत वैकिय पुगलों के साथ गृह्यमाण वैकिय पुगलों का परस्पर सम्बन्ध होता है इसी भाँति—२७–वैक्रियतैजसबन्धननामकर्म, २८ - वैक्रियकार्मणबन्धननामकर्म, २६-आहारकग्राहारकबन्धननामकर्म, ३० - आहार कतैजसबन्धननामकर्म, ३१ - आहारककाबन्धननामकर्म, ३२ - श्रदारिकतै जसकार्मणबन्धननामकर्म ३३ - वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननामकर्म, ३४ - आहारक जसकार्मबन्धननामकर्म, ३५ - तेजस तेजसबन्धननामकर्म, ३६-तैजसकार्मणबन्धननामकर्म, ३७ - काम कर्मबन्धननामकर्मा, इन का भी ग्रहण कर लेना चाहिये । इतना ध्यान रहे कि श्रदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों के पुगलों का परस्पर सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि ये परस्पर विरुद्ध हैं । इसलिये इन के सम्बन्ध कराने वाले नामकर्म भी नहीं है। * Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३८_ वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्म --व का अर्थ है - कीला । ऋषभ वेष्टनपट्ट को कहते हैं। दोनों तरफ मर्कटबन्ध- अर्थ - इस का परिचायक नाराचशब्द है । मर्कटबन्ध से बंधी हुई दो हड़ियों के ऊपर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो उसे वज्र ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसा संहनन प्राप्त हो, उस कर्म का नाम भी वज्र ऋषभनाराचसंहनननामकर्म है । । ३६-ऋषभनाराचसंहनननाम कर्म - दोनों तरफ़ हाडों का मर्कटबन्ध हो, तीसरे हाड का वेष्टन भी हो, लेकिन भेदने वाला हाड का कीला न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। जिस कर्म कर्म के उदय से दारिकदल का तैजस और कार्मण दल के साथ सम्बन्ध होता है । इस For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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