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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२६) श्री विपाकसूत्र [प्राकथन _पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म--इस कर्म के उदय से जीव को त्वचा, जिह्वा, नासिका, नेत्र और कान ये पांच इन्द्रियें प्राप्त होती हैं। १० औदारिकशरीरनामकम-उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है, इस कर्म से ऐसा शरीर उपलब्ध होता है। ११ वैक्रियशरीरनामकर्म-जिस शरीर से एक स्वरूप धारण करना, अनेक स्वरूप धारण करना, छोटा शरीर धारण करना, बड़ा शरीर धारण करना, आकाश में चलने योग्य शरीर धारण करना, दृश्य और अदृश्य शरीर धारण करना आदि अनेकविध क्रियाएँ की जा सकती हैं उसे वैक्रियशरीर कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह वैक्रियशरीरनामकम कहलाता है। १२ आहारकशरीरनामकर्म-१४ पूर्वधारी मुनि महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान तीर्थकर से अपना सन्देह निवारण करने अथवा उन का ऐश्वर्य देखने के लिए जब उक्त क्षेत्र को जाना चाहते हैं तब लब्धिविशेष से एक हाथ प्रमाण अतिविशुद्ध स्फटिक सा निर्मल जो शरीर धारण करते हैं, उसे श्राहारक शरीर कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो वह आहारकशरीरनामकर्म कहलाता है। १३ तेजसशरीरनामकर्म--आहार के पाक का हेतु तथा तेजोलेश्या और शीतललेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है, वह तैजस शरीर कहलाता है। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति होती हो, वह तेजसशरीरनामकर्म कहलाता है। १४ कार्मणशरीरनामकर्म-जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्मपुद्गलों को कार्मणशरीर कहते हैं। इसी शरीर से जीव अपने मरणस्थान को छोड़ कर उत्पत्तिस्थान को प्राप्त करता है । जिस कर्म के उदय से इस शरीर की प्राप्ति हो वह काम णशरीरनामकर्म कहलाता है। १५ औदारिकअंगोपांगनामकर्म-औदारिक शरीर के आकार में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव इस कर्म के उदय से बनते हैं। १६ वैद्रियअंगोपांगनामकर्म-इस कर्म के उदय से वैक्रियशरीररूप में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव बनते हैं। १७ आहारकअंगोपांगनामकर्म-इस कर्म के उदय से आहारक शरीर रूप में परिणत पुद्गलों से अंगोपांगरूप अवयव बनते हैं। १८--औदारिकसंघातननामकर्म-इस कर्म के उदय से प्रौदारिक शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य होता है अर्थात् एक दूसरे के पास व्यवस्था से स्थापित होते हैं १४-वक्रियसंघातननामकर्म--इस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत पुदलों का परस्पर सामीप्य होता है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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