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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री वपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय के जानने वाले देव), यक्ष (व्यन्तर जाति के देव), रावल (मांस की इच्छा रखने वाले देव ) और किन्नर (व्यन्तर देवों की एक जाति) इत्यादि सभी देव उस ब्रह्मचारी के चरणों में नतमस्तक होते है, जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है । वास्तव में देखा जाये तो यह प्रवचन अक्षरशः सत्य है । इस में अत्युक्ति की गन्ध भी नहीं है, क्योंकि इतिहास इस का समर्थक है । ब्रह्मचर्य के ही प्रभाव से स्वनामधन्या सतीधुरीणा जनक सुता सीता का अग्नि को जल बना देना, सती सुभद्रा का कच्चे सूत के धागे से बन्धी हुई छलनी के द्वारा कूप से निकाले हुए पानी से चम्पा नगरी के दरवाज़ों का खोलदेना तथा धर्मवीर सेठ सुदर्शन का शूली को सिंहासन बना देना, इत्यादि अनेकों उदाहरण इतिहास में उपलब्ध होते हैं। हुकार मात्र से पृथ्वी को कंपा देने वाले बाहुबलि तथा महाभारत के अनुपम वीर भीष्मपिताह तथा महामहिम श्री जम्बू स्वामी एवं मुनिपुगव श्री स्थूलि भद्र जी महाराज इत्यादि महापुरुष ज़मीन फोड़ कर या आसमान फोड़ कर नहीं पैदा हुए थे। वे भी अन्य पुरुषों की भान्ति अपनी २ माताओं के गर्भ से ही उत्पन्न हुए थे । परन्तु यह उनके ब्रह्मचर्य के तेज का प्रभाव है कि वे इतने महान् बन गये तथा यह भी उनके ब्रह्मचर्य की ही महिमा है कि आज उनका नाम लेने वाला मलिनहृदय व्यक्ति भी अपनी मलिनता दूर होती अनुभव करता है, तथा उनके जीवन को अपने लिये पथप्रदर्शक के रूप में पाता है। ब्रह्मचर्य मानव जीवन में मुख्य और सारभूत वस्तु है । यह जीवन को उच्चतम बनाने के अतिरिक्त संसारी आत्मा को कर्मरूप शत्रुओं के चंगुल से छुड़ाने में एक बलवान् सहायक का काम करता है । अधिक क्या कहें संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवात्मा को जन्म मरण के चक्र से छुड़ा कर मोक्ष-मन्दिर में पहुंचाने तथा सम्पूर्ण दुःखों का नाश करके उसे-आत्मा को नितान्त सुखमय बनाने का श्रेय इसी ब्रह्मचर्य को ही है, और इसके विपरीत ब्रह्मचर्य की अवहेलना से संसारी आत्मा का अधिक से अधिक पतन होता है, तथा सुख के बदले वह दुःख का ही विशेषरूप से संचय करता है । तात्पर्य यह है कि जहां ब्रह्म वयं सारे सद्गुणों का मूल है वहां उस का विनाश समस्त दुगुणों का स्रोत है । ब्रह्मचर्य के विनाश से इस जीव को कितने भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं, ? यह प्रस्तत अध्ययन-गत शकट कुमार के व्यभिचारपरायण जीवनवृत्तान्तों से भलीभान्ति ज्ञात हो जाता है। मानव की हिंसाप्रधान और व्यभिचारपरायणप्रवृत्ति का जो दुष्परिणाम होता है, या होना चाहिये, उसी का दिग्दर्शन कराना हो इस चतुर्थ अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । अतः विचारशील पाठक इस अध्ययन के कथासंदर्भ से -हिंसा से विरत होकर भगवती अहिंसा के आराधन की तथा वासनापोषक प्रवृत्तियों को छोड़े कर सदाचार के सौरभ से मानस को सुरभित करने की शिक्षाएं प्राप्त कर अपने को दयालु अथच संयमी बनाने का श्लाघनीय प्रयत्न करेंगे, ऐसी भावना करते हुए हम प्रस्तुत अध्ययन के विवेचन से विराम लेते हैं। ॥ चतुर्थ अध्याय समाप्त ।। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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