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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [३१३ दीक्षित हो जायेगा और वह ईर्यासमित-यतनापूर्वक गमन करने वाला, भाषासमित – यतनापूर्वक बोलने वाला, एषणासमित-निदोष आहार-पानी ग्रहण करने वाला, श्रादानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमित- वस्त्र. पात्र और पुस्तक आदि उपकरणों को उपयोगपूर्वक ग्रहण करने और रखने वाला, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिकासमित -- अर्थात् मल मूत्र, थूक, नासिकामल और पसीने का मल इन सब का यतनापूर्वक परिष्ठापन करने वाला अर्थात् परठने वाला, मनसमित-मन के शुभ व्यापार वाला, वचःसमित-वचन के शुभ व्यापार वाला, कायसमित-काया के शुभ व्यापार वाला, मनोगुप्त-मन के अप्रशस्त व्यापार को रोकने वाला, वचोगुप्त-वचन के अशुभ व्यापार को रोकने वाला, कायगुप्त - काया के अशुभ व्यापार को रोकने वाला, गुप्त - मन, वचन वा काया को पाप से बचाने वाला, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों का निग्रह करने वाला, गुप्तब्रह्मचारी-ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाला अनगार होगा । और वह साधुधर्म में बहुत वर्षों तक साधुधर्म का पालन कर आलोचना (गुरु के सन्मुख अपने दोषों को प्रकट करना', तथा प्रतिक्रमण (अशभयोग से निवृत्त हो कर शुभयोग में स्थिर होना) कर समाधि -(चित्त की एकाग्रतारूप ध्यानावस्था) को प्राप्त होकर मृत्यु का समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहां से वह बिना अन्तर के व्यव कर महाविदेह क्षेत्र में निम्नोक्त कुलों में उत्पन्न होगा - वे कुल सम्पन्न - वैभवशाली, दीप्त – तेजस्वी, वित्त – प्रसिद्ध (विख्यात), विस्तृत और विपुल मकान, शयन (शय्या), आसन यान (रथ आदि) वाहन । घोड़ा आदि अथवा नौका जहाज आदि ), धन, सुवर्ण और रजत - चांदी की बहुलता से युक्त होंगे । उन कुलों में द्रव्योपार्जन के उपाय प्रयुक्त किये जायेंगे अथवा अधमर्षों ( कर्जा लेने वालों) को व्याज पर रुपया दिया जाएगा । उन कन्नों में भोजन करने के अनन्तर भी बहुत सा अन्न बाक़ी बच जाएगा । उन कुलों में दास दासी आदि पुरुष और गाय, भैस तथा बकरी आदि पशु प्रचुर संख्या में रहेंगे तथा वे कुल बहुत से लोगों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो सकेंगे । शकट कुमार का जीव महाविदेह क्षेत्र में इन पूर्वोक्त उत्तम कुलों में उत्पन्न होकर दृढ़ - प्रतिज्ञ की भान्ति ७२ कलायें सीखेगा और युवा होने पर तथारूप स्थविरों के पास दीक्षित हो संयमाराधन कर के सिद्धि को प्राप्त करेगा, कर्मजन्य संताप से रहित हो जाएगा और सर्वप्रकार के जन्म मरण जन्य दुःखों का अन्त कर डालेगा। दृढ़प्रतिज्ञ का संक्षिप्त जीवनपरिचय पृष्ठ १०० तथा १०१ पर दिया जा चुका है ।। प्रस्तुत चतुर्थ अध्ययन में सूत्रकार ने जीवन - कल्याण के लिये दो बातों की विशेष प्रेरणा कर रखी है । प्रथम तो मांसाहार के त्याग की और दूसरे ब्रह्म व्यं के पालन की । मांसाहार गर्हित है, दुःखों का उत्पादक है तथा जन्म मरण को परम्परा का बढ़ाने वाला है । यह सभी धर्मशास्त्रों ने पुकार २ कर कहा है । साथ में उस के त्याग को बड़ा सुखद प्रशस्त एवं सुगतिप्रद माना है । मांसाहार से जन्य हानि और उस के त्याग से होने वाला लाभ शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से वर्णित हुआ है । पाठकों की जानकारी के लिये कुछ शास्त्रीय उद्धरण नीचे दिये जाते हैं - जैनागम श्री स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान में नरक-आयु -बन्ध के निम्नोक्त चार कारण लिखे हैं (१) महारम्भ-बहुत प्राणियों की हिंसा हो, इस प्रकार के तीव्र परिणामों से कषायपूर्वक For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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