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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३१० श्रो विपाक सूत्र - चितुर्थ अध्याय । प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह बतलाया गया था कि श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से विपाकश्रुत के चतुर्थ अध्ययन का अर्थ सुनने की इच्छा प्रकट की थी। आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की इच्छानुसार प्रस्तुत चौथे अध्ययन का वर्णन कह सुनाया, जो कि पाठकों के सन्मुख है । इस पूर्वप्रतिपादित वृत्तान्त का स्मरण कराने के लिये ही सूत्रकार ने निक्खेवो- निक्षेप यह पद दिया है। निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर कर दिया गया है । प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से सूत्रकार को जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त है "एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं दुहविवागाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमढे पराणत्ते ति बेमि"- अर्थात् हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है । इस प्रकार मैं कहता हूँ । तात्पर्य यह है कि जैसा भगवान से मैंने सुना है वैसा तुमें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। -जोव्वण भविस्सति- यहां के बिन्दु से -जोव्वणगमणुप्पत्ते अलंभोगसमत्थे यावि इस अवशिष्ट पाठ का बोध होता है । इस का अर्थ है --युवावस्था को प्राप्त तथा भोग भोगने में भी समर्थ होगा। .. --विरणय. जोव्वणगमणुप्पत्ता--यहां का बिन्दु -परिणयमेना - इस पाठ का परिचायक है। इस पाठ का अर्थ पृष्ठ २०३ पर लिखा जा चुका है अन्तर मात्र इतना है कि वहां यह एक बालक का विशेषण है, जब 'क यहां एक बालिका का। ..... -अहम्मिर जाव दुप्पडियाणंदे -यहां के जाव-यावत् पद से संसूचित पाठ पृष्ठ ५५ पर लिखा जा चुका है। तथा-पयकम्मे ४ - यहां दिये गये ४ के अंक से विवक्षित पाठ पृष्ठ १७९ के टिप्पण में किया गया है। -तहेव जाव पुढवीए०-यहां का जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ पर दिये गये-से णं ततो अणंतरं उज्वहिता सरीसवेसु उववज्जिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए-से लेकर--वाउ० तेउ० आउ०- इत्यादि पदों का परिचायक है । तथा पुढवीए०-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ २७५ पर लिखा जा चुका है । ___" - वोहिं, पव्वज्जा०, सोहम्मे कप्पे, महाविदेहे०, सिज्झिहिति ५-इन पदों से -बुझिहिति २ अगाराश्रो अणगारियं पव्वइहिति । से णं भविस्सइ अणगारे इरियासमिते भासासमिते एसणासमिते आयाणभण्डमत्तनिक्खेवणासमिते उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपरिठ्ठावणियासमिते मणसमिते वयसमिते कायसमिते मणगत वयगत कायगत गुत्त गुतिंदिर गुत्तबं. पारी से णं तत्थ बहई वासाई सामराणपरियागं पाउणित्ता. आलोइपडिक्कन्ते समाहि पत्त कालमासे कालं किन्चा सोहम्मे कप्पे देवताए उववज्जिहिति । से गं ततो अणंतर चइत्ता महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवन्ति अड्ढाई दित्ताईवित्ताई विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधणजायरूवरययाई आरोगपोगसंप उत्ताइ विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई बहदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभयाई बहु जणस्स अपरिभूयाई जहा दृढपतिराणे, सा चेव वत्तव्वया कलाउ जाव सिझिहिति बुज्झिहिति मुग्चिहिति परिणव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करिहिति-" इन पदों की ओर सकेत कराना सूत्रकार को अभिमत है, इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है ___ बोधि - सम्यकत्व को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर के गृहस्थावास को छोड़ कर साधुधर्म में For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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