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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९८] श्री वपाक सुत्र [चतुर्थ अध्याय गया और वह वहां परलोक को सिधार गया । शकट कुमार ने उसका सम्पूर्ण और्द्धदैहिक कर्म किया। तदनन्तर उसकी माता भी पतिवियोगजन्य दुःख को अधिक काल तक न सह सकी। परिणाम - स्वरूप वह भी इस असार संसार से चल बसी। उस समय प्रायः व्यापार करने वालों का यह नियम होता था कि जिस समय व्यापार को बढ़ाते थे अथवा यू' कहिये कि व्यापार के निमित्त जब अपने देश को छोड़ कर विदेश में जाना होता था तो अपना सारा धन और हो सके तो अन्य नागरिकों से पर्याप्त ऋण लेकर अपने जहाज़ को माल से भर लेते और व्यापार के लिये प्रस्थान कर देते। __ सुभद्र नामक सार्थवाह ने भी ऐसा ही किया था। उसने वहां के धनियों से काफ़ी ऋण ले रक्खा था। इसलिये सुभद्र सेठ और भद्रादेवी की मृत्यु ने उन सब को सचेत कर दिया, वे अपने दिये हुए धन को किसी न किसी रूप में प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे। जिस को जो कुछ मिला वह ले गया। इसी में सुभद्र सेठ की सारी चल सम्पत्ति समाप्त हो गई। अवशेष उस की जो स्थावर सम्पत्ति थी, उसके लिये लेनदारों ने न्यायालय की शरण ली और राजाज्ञा के अनुसार सुभद्र की स्थावर सम्पत्ति पर भी अपना अधिकार कर लिया। इसके परिणामस्वरूप शकट - कुमार को अपने घर से भी निकलना पड़ा। घर से निकल जाने पर मातृपितृविहीन शकट कुमार निरंकुश हाथी या बेलगाम घोड़े की तरह स्वछन्द फिरने लगा। उसकी बैठक ऐसे पुरुषों में हा गई जो कि जुआरी, शराबी और परस्त्रीलम्पट थे। उनके सहवास में आकर शकट कुमार भी उन्हों दुगुणों का भाजन बन गया। उसके रहने का न तो कोई नियत स्थान था और न कोई योग्य व्यक्ति उसे किसी प्रकार का श्राश्रय देता था । वह प्रथम जितना धन-सम्पन्न, सुखी और प्रतिष्ठाप्राप्त किये हुए था, उतना ही निर्धन, दुःखी और प्रतिष्ठाशून्य हो रहा था। यह तो हुई शकट कुमार की बात । अब पाठक साहजनी नगरी की स प्रसिद्ध सदर्शना वेश्या की ओर भी ध्यान दें। _ वह एक निपुण कलाकार होने के अतिरिक्त रूपलावण्य में भी अद्वितीय थी । कामवास मावासित अनेक धनी, मानी युवक उसका अातिथ्य प्राप्त करने की लालसा से धन की थैलियां ले कर उसके दर्वाज़े पर भटका करते थे। परन्तु उसके पास जाने या उससे बातचीत करने और सहवास में आने का अवसर तो किसी विरले को ही प्राप्त होता था। इधर शकट कुमार को माता और पिता छोड़ गये, धन सम्पत्ति ने उससे मुख मोड़ लिया । परन्तु उसके शरीरगत स्वाभाविक सौन्दर्य एवं सभ्यजनोचित व्यवहार – कुशलता ने उस का साथ नहीं छोड़ा था। वह एक दिन सदर्शना के विशाल भवन की ओर जाता हुआ उसके नीचे से गुज़रा । ऊपर झरोखे में बैठी हुई सुदर्शना की जब उस पर दृष्टि पड़ी तो वह एक दम मुग्ध सी हो गई, और उसे ऐसा भान हुआ कि मानों रूप लावण्य की एक सजीव मूर्ति अपने आप को फटे पुराने वस्त्रों से छिपाये हुए जा रही है। जिसे प्राप्त करने के लिये वह ललचा उठी। उसने अपनी एक चतुर दासी को भेज कर उसे ऊपर आने की प्रार्थना की। जैसे कि प्रथम भी बतलाया जा चुका है कि प्रेम हृदय की वस्तु है । प्रेम के साम्राज्य में धनी और निर्धन का कोई प्रश्न नहीं होता । धन-हीन व्यक्ति भी अपने अन्दर हृदय रखता है, उस का हृदय भी तृषातुर जीव की तरह प्रमोदक का पिपासु होता है । जिस सुदर्शना की भेंट के लिये नगर के अनेकों युवक धन की थैलिये लुटा देने को तैयार रहने पर भी उस की For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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