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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९६] श्रो विपाक सूत्र चितुर्थ अध्याय सा होती है कि उस के लिये वे असह्य से असह्य कष्ट झेलने के लिये भी सन्नद्ध रहती है । और यदि उसे सन्तान की प्राप्ति और खास कर पुत्र सन्तान की प्राप्ति हो जाये तो उस को जितना हर्ष होता है उसकी इयत्ता - सीमा कल्पना को परिधि से बाहिर है। इस के विपरीत सन्तान का हो कर निरन्तर नष्ट हो जाना तो उसके असोम दुःख का कारण बन जाता है । सन्तति का वियोग स्त्री - जाति को जितना असह्य होता है, उतना और किसी वस्तु का नहीं । यही कारण है कि भद्रादेवो निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहती है । उसे रात को निद्रा भी नहीं आती, दिन को चैन नहीं पड़ती । आज तक उस को जितनो सन्तान हुई सब उत्पन्न होते ही काल के विकराल गाल में सदा के लिये जा छिपी हैं । उसने अपने आज तक के सारे जीवन में किसी शिशु को दूध पिलाने या जी भर कर मुख देखने तक का भी सोभाग्य प्राप्त नहीं किया । इसी आशय को प्रस्तुत सूत्र में भद्रादेवी को जातनिन्दुका कह कर व्यक्त किया गया है। जातनिन्दुका का अर्थ हैजिस के बच्चे उत्पन्न होते हो मर जावें । भद्रादेवी की भी यही दशा थी, उसके बच्चे भी उत्पन्न हो कर नष्ट हो जाते थे । कार्यनिष्पति के कारण समवाय में समय को अधिक प्राधान्य प्राप्त है । इसकी अनुकूलता और प्रतिकूलता पर संसार का बहुत कुछ कार्यभार निर्भर रहता है । जब समय अनुकूल होता होता है तो अभिलषित कार्यों की सिद्धि में भी देरी नहीं लगती । एवं जब समय प्रतिकूल होता है तो बना बनाया खेल भी बिगड़ जाता है । मानव की सारी योजनाएं छिन्न भिन्न हो कर लुप्त हो जाती हैं । इसी लिये नितिकारों ने समय एव करोति बलाबलम्।' यह कह कर उसकी बलवत्ता को अभिव्यक्त किया है । - सुभद्र सार्थवाह की भद्रा देवी भी पूर्वोजित अशभ कर्मों के विपाक-फल से प्रतिकूल समय के ही चक्र में फसी हुई सन्तति के वियोग -जन्य द:ख को उठाती रही, परन्तु आज उस के किसी शुभ कर्म के उदय से उसके दुर्दिनों का अर्थात् प्रतिकूल समय का चक्र बदल गया और उसके स्थान में अब अनुकून समय का शुभागमन हुा । तात्पर्य यह है कि शुभ समय ने उसके जीवन में एक नवीन झांकी से अप्रत्याशित -असभावित आशा का संवार किया और उस से उस को कुछ थोड़ा सा अश्वासन मिला । इधर छरिणक छागलिक -वधिक का जीव अपनी नरक -सम्बन्धी भवस्थिति को पूर्ण कर के वहां से निकल कर इसी भद्रा देवी के उदर में पुत्ररूप से अवतरित हुआ । उस के गर्भ में आते ही भद्रा देवी की मुर्भाई हुई आशालता में फिर से कुछ सजगता आनी प्रारम्भ हुई । ज्यों २ गर्भ बढ़ता गया त्यों २ उसके हृदयाकाश में प्रकाश की भी मन्द सी रेखा दिखाई देने लगी । अन्त में लगभग नव मास पूरे होने पर किसी समय उसने एक सुन्दर शिश को जन्म दिया। लोक में ऐसी किंवदन्ती आबालगोपाल प्रसिद्ध है कि 'पयसा दग्धः पुमान् तक्रमपि फूत्कृत्य पिबति' अर्थात् दूध का जला हुआ पुरुष छाछ को भी फू के मार मार कर पीता है । इसी भांति सुभद्रा देवी भी बहुत से बालकों को जन्म दे कर भी उन से वंचित रह रही थी । उस ने पुत्र के होते ही उसे एक गाडे के नीचे रख दिया और फिर से उठा कर अपनी गोद (१) समय एव कराति बलाबलम्, प्रणिगदन्त इतीव शरीरीणाम् । शरदि हंसरवाः परुषीकृत - स्वरमयूरमयू रमणीयताम् ॥१॥ (शिशुपालवध में से) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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