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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तोरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित | [ २६९ तीर्थंकर देव के अतिशयविशेष से २५ योजन के मध्य में पूर्व उत्पन्न रोग शान्त हो जाते हैं— नष्ट हो जाते हैं और भविष्य में सात उपद्रव भी उत्पन्न नहीं होने पाते । सात उपद्रवों के नाम हैं - (१) ईति (२) र (३) मारी (४) अतिवृष्टि ( ५ ) अनावृष्टि (६) दुर्भिक्ष और (७) डम ति आदि पदों का भावार्थ निम्नोक्त है (१) ईति - खेती को हानि पहुंचाने वाले उपद्रवों का नाम वृष्टि - वर्षा का अधिक होना, (२) अनावृष्टि - वर्षा का अभाव, (४) चूहा लगना, (५) तोते आदि पक्षियों का उपद्रव, (६) दूसरे छः प्रकार का होता है ' । ईति है और वह (१) अति( ३ ) टिड्डीदल का पडना, राजा की चढाई - इन भेदों से 66 33 स्वचक्रमय अर्द्धमागधीकोषकार ईति शब्द का अर्थ भय करते हैं और वह उसे सात प्रकार का मानते हैं । छः तो ऊपर वाले ही हैं, सातवां उन्हों ने अधिक माना । तथा प्राकृतशब्द महार्णवकोषकार ईति शब्द का धान्य वगैरह को नुकसान पहुँचाने वाला चूहा आदि प्राणिगण - ऐसा अर्थ करते हैं । परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ईति शब्द से खेती को हानि पहुंचाने वाले चूहा, टिड्डी और तोता श्रादि प्राणिगण, यही अर्थ अपेक्षित है क्योंकि अतिवृष्टि आदि का सात उपद्रवों में स्वतन्त्ररूपेण ग्रहण किया गया है । (२) वैर - शत्रुता, (३) मारी - संक्रामक भीषण रोग, जिस से एक साथ ही बहुत से लोग मरें, मरी, प्लेग आदि । (४) अतिवृष्टि - अत्यन्त वर्षा, (५) नावृष्टि - वर्षा का अभाव, (६) दुर्भिक्ष - ऐसा समय जिस में भिक्षा या भोजन कठिनता से मिले - अकाल, (७) डमर - राष्ट्रविप्लवराष्ट्र के भीतर या बाहिर उपद्रव का होना । सारांश यह है कि जहां पर तीर्थकर भगवान विराजते या विचरते हैं वहां पर उनके आस पास २५ योजन के प्रदेश में ये पूर्वोक्त उपद्रव नहीं होने पाते, और अगर हों तो मिट जाते हैं, यह उनके अतिशय का प्रभाव होता है । तब यदि यह कथन यथार्थ है तो पुरिमताल नगर में जहां कि श्री वीर प्रभु स्वयं विराजमान है, चोरसेनापति प्रभमसेन के द्वारा ग्रामादि का दहन तथा अराजकता का प्रसार क्यों ? एवं उसे विश्वास में लाकर बन्दी बना लेने के बाद उस के साथ हृदय को कंपा देने वाला इतना कठोर और निर्दय व्यवहार क्यों ? जिस महापुरुष के अतिशय विशेष से २५ योजन जितने दूर प्रदेश में भी उक्त प्रकार का कोई उपद्रव नहीं होने पाता, उनकी स्थिति में - एक प्रकार से उन के सामने, उक्त प्रकार का उपद्रव होता दिखाई दे, यह एक दृढ़ मानस वाले व्यक्ति के हृदय में भी उथलपुथल मचा देने वाली घटना है । इस लिये प्रस्तुत प्रश्न पर विचार करना आवश्यक ही नहीं नितान्त आवश्यक हो जाता है । उत्तर - इस प्रकार की शंका के उत्पन्न होने का कारण हमारा व्यापक बोध है । जिन महानुभावों का शास्त्रीय ज्ञान परिमित होता हैं, उन के हृदय में इस प्रकार के सन्देह को स्थान प्राप्त होना कुछ आश्चर्यजनक नहीं है । अस्तु, अब उक्त शंका के सभाधान की ओर भी पाठक ध्यान दें For Private And Personal संसार में अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी हो रहा है, उस का सब से मुख्य कारण जीव का स्वकृत शुभाशुभ कर्म है । शुभाशुभ कर्म के बिना यह जीव इस जगत् में कोई भी (१) अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषकाः शुकाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेते इतयः स्मृताः ।।
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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