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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६८ श्री वपाक सूत्र [तोसरा अध्याय अथवा उसकी पकड़धकड़ में कहीं उस पर कोई मार्मिक प्रहार न कर देना जिस से उस का वहीं जीवनान्त हो जाए अर्थात उसे जोवित हो पकड़ना है. इस बात का विशेष ध्यान रखना. ताकि प्रजा को पीडित करने के फल को वह तथा प्रजा अपनी आंखों से देख सके । अाज्ञा मिलते ही महाराज को नमस्कार कर राजपुरुष वहां से चले और पुरिमताल नगर के द्वार उन्हों ने बन्द कर दिए, तथा कुटाकारशाला में जा कर अभग्नसेन चोरसेनापति को जोते जो पकड़ लिया एवं बन्दी बना कर महाराज महाबल के सामने उपस्थित किया । बन्दी के रूप में उपस्थित हुए अभग्नसेन चोरसेनापति को देख कर तथा उस के दानवीय कृत्यों को याद कर महाबल नरेश क्रोध से तमतमा उठे और दान्त पीसते हुए उन्होंने मंत्री को आज्ञा दी कि पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बैठा कर इसे तथा इस के सहयोगी सभी पारिवारिक व्यक्तियों को ताड़नादि द्वारा दण्डित करो एव विडम्बित करो, ताकि इन्हें अपने कुकृत्यों का फल मिल जाए और जनता को-चोरों एवं लुटेरों का अन्त में क्या परिणाम होता है १ - यह पता चल जाए तथा अन्त में इसे सूली पर चढ़ा दो । मंत्री ने महाबल नरेश की इस अाज्ञा का जिस रूप में पालन किया उस का दिग्दर्शन पृष्ठ २०६ पर कराया जा चुका । पाठक वहीं देख सकते हैं । प्रस्तुत कथा-सन्दर्भ में एक ऐसा स्थल है जो पाठकों को सन्देह-युक्त कर देता है। पूज्य श्री अभयदेव सूरि ने इस सम्बन्ध में विशिष्ट ऊहापोह करते हुए उसे समाहित करने का बड़ा ही श्लावनीय प्रयत्न किया है। प्राचार्य अभयदेव सूरि का वह वृत्तिगत उल्लेख इस प्रकार है - "ननु तीर्थकरा यत्र विहरन्ति तत्र देशे पंचविंशतेोजनानाम्, आदेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थकरातिशयाद् न वैरादयोऽनर्था भवन्ति, यदाह 'पुवुप्पन्ना रोगा पसमंति ईइवइरमारीओ, अइबुट्ठी अणावुट्टी न होइ दुब्भिक्खं डमरं च ॥१॥ __तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमतालनगरे व्यवस्थित पवाभग्नसेनस्य पूर्ववर्णितो व्यतिकरः सम्पन्न इति ? अत्रोच्यते-“सर्वमिदमानर्थजातं प्राणिनां स्वकृतकर्मणः सकाशादुपजायते, कर्म च द्वेधा-सोपक्रमं निरुपक्रम च, तत्र यानि वैरादोनि सोपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्येव जिनातिशयादुपशाम्यन्ति, सदोषधात् साध्यव्याधिवत् । यानि तु निरुपक्रमकर्मसम्पाद्यानि तानि अवश्यं विपाकतो वेद्यानि, नोपक्रमकारणविषयाणि, असाभ्यव्याधिवत् । अत एव सर्वातिशयसंपत्समन्विताना जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकादय उपसर्गान् विहितवन्तः" । इन पदों का भावार्थ निम्नलिखित है शास्त्रकारों का कथन है कि जिस राष्ट्र, देश वा प्रान्त में तथा जिस मंडल, जिस ग्राम और जिस भूमि में तीर्थकर२ देव विराजमान हों, उस स्थान से २५ योजन की दूरी तक अर्थात् २५ योजन के मध्य में तीर्थकरदेव के अतिशय-विशेष से अर्थात उन के आत्मिकतेज से वैर तथा दुर्भिक्ष श्रादिक अनर्थ नहीं होने पाते । जैसे कि कहा है (१) पूर्वोत्पन्ना रोगा: प्रशाम्यन्ति ईतिवैरमार्यः। अतिवृष्टिरनावृष्टिर्न भवति दुर्भिक्ष डमरं च ॥१॥ . (२) साधु सान्वी और श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ को तीर्थ कहते हैं, उसके संस्थापक का नाम तीर्थकर है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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