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________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दूसरा अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित । [१५५ होने लगते हैं । गोत्रास का जीव गर्भ में आते ही अपनी पापमयी प्रवृत्ति का परिचय देने लग पड़ा था । उस की माता के हृदय में जो हिंसाजनक पापमय संकल्प उत्पन्न हुए उस का एकमात्र कारण गोत्रास का पाप-प्रधान प्रवृत्ति करने वाला जीव ही था । युवावस्था को प्राप्त होकर पितपद को संभाल लेने के बाद उसने अपनी पापमयी प्रवृत्ति का यथेष्टरूप से प्रारम्भ कर दिया। प्रति. दिन अर्द्धरात्रि के समय एक सैनिक की भांति कवचादि पहन और अस्त्रशस्त्रादि से लैस होकर हस्तनापर के गोमण्डप में आना और वहां नागरिक पशुओं के अंगोपांगादि को काटकर लाना, एवं तद्गत मांस को शूलादि में पिरोकर पकाना और उस का मदिरादि के साथ सेवन करना यह सब कुछ उस की जघन्यतम हिंसक प्रवृत्ति का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। इसी लिये सूत्रकार ने उसे अधार्मिक, अधर्मानुरागी यावत् साधुजनविद्वषी कहा है, तथा पाप - कर्मों का उपार्जन करके तीनसागरोपम की उत्कृष्टस्थिति वाले दूसरे नरक में उस का नारकरूप से उत्पन्न होना भी बतालाया है। बुरा कर्म बुरे ही फल को उत्पन्न करता है । पुण्यसुख का उत्पादक और पाप दुःख का जनक है, इस नियम के अनुसार गोत्रास को उस के पापकर्मा का नरकगतिरूप फल प्राप्त होना अनिवार्य था। पापादि क्रियाओं में प्रवृत्त हुआ जीव अन्त में दु:ख-संवेदन के लिये दुर्गति को प्राप्त करता है। गोत्रास ने अनेक प्रकार के पापमय आचरणों से दुर्गति के उत्पादक कर्मों का उपार्जन किया और अ यु की समाप्ति पर अातध्यान करता हुआ वह दूसरे नरक का अतिथि बना, वहां जाकर उत्पन्न हुआ। "अट्ट-दुहट्टोवगए" इस पद की टीकाकार महानुभाव ने निम्नलिखित व्याख्या की है "श्रात, आर्तभ्यानं दुर्घट-दुःखस्थगनीयं दुर्वार(य)मित्यर्थः उपगतः-प्राप्तो यः स तथा-" अर्थात् बड़ी कठिनता से निवृत्त होने वाले आतध्यान' को प्राप्त हुअा। तथा प्रस्तुत सूत्रगत (१) अार्ति नाम दुःख का है, उस में उत्पन्न होने वाले ध्यान को 'अार्तध्यान कहते हैं । वह चार भागों में विभाजित होता है, जैसे कि - १- अमनोज्ञवियोगचिन्ता-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, विषय एवं उन की साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर उन के वियोग (हटाने) की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उन का संयोग न हो, ऐसी इच्छा का रखना अ.र्तध्यान का प्रथम प्रकार है । २-मनोज्ञ-संयोग-चिन्ता-पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय एवं उन के साधनरूप माता, पिता, भाई, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि अर्थात् इन स ख के साधनों का संयोग होने पर उन के वियोग (अलग) न होने का विचार करना तथा भविष्य में भी उन के संयोग की इच्छा बनाए रखना, अार्तध्यान का दूसरा प्रकार है। * ३-रोग-चिन्ता-शूल, सिरदर्द, आदि रोगों के होने पर उन की चिकित्सा में व्यग्र प्राणी का उन के वियोग के लिये चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिए रोगादि के संयोग न होने की चिन्ता करना, आर्तध्यान का तीसरा प्रकार है । ४-निदान (नियाना)-देवेन्द्र, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव के रूप, गुण और ऋद्धि को देख या सुन कर उन में आसक्ति लाना और यह सोचना कि मैंने जो संयम आदि धर्मकृत्य किए हैं उन के फलस्वरूप मुझे भी उक्त गुण एवं ऋद्धि प्राप्त हो, इस प्रकार निदान (किसी व्रतानुष्ठान की फलप्राप्ति की अभिलाषा ) की चिन्ता करना, आर्तध्यान का चौथा प्रकार है। (१) आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वहारः ॥३१॥ वेदनायाञ्च ॥३२॥ विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥३३॥ निदानं च ॥३४॥ (तत्वार्थ सूत्र अ. ९.) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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