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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५४ श्री विपाक सूत्र | दूसरा अध्याय - अर्थात् सुनन्द राजा ने गोत्रास को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया । तते गं - तदनन्तर । गोत्तासे - गोत्रास नामक । दारए – बालक । कूटग्गाहे - कूटग्राह । जाए यात्रि होत्या - होगया अर्थात् कूटग्राह के नाम से प्रसिद्ध हो गया, परन्तु । श्रहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे - वह बड़ा ही अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द - बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था । तते गं - तदनन्तर । से - वह । कूडग्गाहे - कूटग्राह । गोत्तासेदारण – गोत्रास बालक । कल्लाकुल्लिं - प्रति दिन हर रोज़ । श्रड्ढरतकालसमयंसि - अर्द्धरात्रि के समय एगे - अकेला । अबीए - जिस के साथ दूसरा कोई नहीं । सन्नद्धबद्धकवए – सन्नद्ध सैनिक की भांति सुसज्जित एवं कवच बान्धे हुए | जाव -- यावत् । गहिया उहपहरणे - आयुध और प्रहरण लेकर । सातो - अपने । गिहातो-घर से । निज्जाति-निकलता है, निकल कर । जेणेव जहां पर । गोमंडवे - गोमंडप है । तेणेव - वहां पर । उवा० - आता है, आकर बहूणं अनेक । रागरगोरू वाणं – नागरिक पशुओं के । साह० – सनाथों के । जाव - यावत् । वियंगेति २ – अंगों को काटता है और उनके अंगों को काट कर । जेणेव - जहां पर । सर गिहे - अपना घर है । तेणेव – वहीं पर । उवा० - आ जाता है । तते णं - तदनन्तर । से गोत्तासे कूड० - वह गोत्रास कूटग्राह । तेहिं - उन बहूहिं - बहुत से । सोल्लेहिं - शूलपक्व । गोमंसेहिं जाव- गो आदि यावत् नागरिक पशुओं के मांसों के साथ । सुरं च ५ - सुरा आदि का । आसा ०४ - आस्वादन आदि लेता हुआ । विहरति - जीवन व्यतीत करता है । तते गं - तदनन्तर । से गोत्तासे कूड० – गोत्रास नामक कूटग्राह । एयकम्मे – इन कम वाला । प० - इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला । वि० - इस विद्या को जानने वाला । स० - एवंविध आचरण करने वाला | सुबहु - - अत्यन्त | पावं - पाप । कम्मं - कर्म का । समज्जि णित्ता - उपार्जन कर । पंच वाससयाई - पांच सौ वर्ष की । परमाउं - परम आयु का । पालयित्ता - पालन कर अर्थात् उपभोग कर । अदुहट्टोवगते - चिन्ताओं और दुःखों से पीडित होकर कालमासे - कालमास - मरणावसर में । कालं किच्चा - काल करके । उक्कोसंतीन सागरोपम स्थिति वाली । दोच्चाए - दूसरी । पुढवीए - नरक में । ज्ववन्ने - उत्पन्न हुआ । 1 - उत्कष्ट । तिसागरां० - रइयत्ताए - नारकरूप से मूलार्थ - तत् पश्चात् सुनन्द राजा ने गोत्रास बालक को स्वयमेव कूटग्राह ( छल कपट के प्रपंच से परधन का अपहारक ) के पद पर नियुक्त कर दिया । तदनन्तर अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के समय सैनिक की भांति तैयार होकर कवच पहन कर, एवं शस्त्र अस्त्रों को ग्रहण कर अपने घर से निकलता है, निकल कर गोमंडप में जाता है, वहां पर अनेक गो आदि नागरिक पशुओं के अगोपांगों को काटकर अपने घर में आ जाता है, आकर उन गो आदि पशुओं के शूल - पक्व मांसों के साथ सुरा आदि का आस्वादन आदि करता हुआ जीवन व्यतीत करता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मों वाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, एवंविध विद्या- पापरूप विद्या के जानने वाला तथा एवंविध आचरणों वाला नाना प्रकार के पाप कर्मों का उपार्जन कर पांच सौ वर्ष की परम आयु को भोग कर चिन्ताओं और दुःखों से पीडित होता हुआ कालमास में - मरणावसर में काल कर के उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले दूसरे नरक में नारकरूप से उत्पन्न हुआ । टीका - अधर्मी या धर्मात्मा, पापी अथवा पुण्यवान् जीव के लक्षण गर्भ से ही प्रतीत For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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