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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४६] श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय "ओहय० जाव झियाति" इस वाक्य गत -जाव-यावत्-" पद से ---"- श्रोहयमणसंकप्पा " [ जिस के मानसिक संकल्प विफल हो गये हैं ] " करतलपल्हत्थमुही "[ जिस का मुख हाथ पर स्थापित हो ] अट्टज्माणोवगया- [आर्तध्यान को प्राप्त १ ] इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए । इस का सारांश यह है कि - उत्पला अपने दोहद की पूर्ति न होने पर बहुत दुःखी हुई। अधिक क्या कहें प्रतिक्षण उदास रहती हुई आर्तध्यान करने लगी। __एक दिन उत्पला के पति भीम नामक कूटग्राह उस के पास आये, उदासीन तथा आर्त ध्यान में व्यस्त हुई उत्पला को देख कर प्रेमपूर्वक बोले-देवि ! तुम इतनी उदास क्यों हो रही हो ? तुम्हारा शरीर इतना कृश क्यों हो गया ? तुम्हारे शरीर पर तो मांस दिखाई ही नहीं देता, यह क्या हुआ ? तुम्हारी इस चिन्ता-- जनक अवस्था का कारण क्या है । इत्यादि । पतिदेव के सान्त्वना भरे शब्दों को सुन कर उत्पला बोली, महाराज ! भेरे गर्भ को लग भग तीन मास पूरे हो जाने पर मुझे एक दोहद उत्पन्न हुअा है, उस की पूर्ति न होने से मेरी यह दशा हुई है । उसने अपने दोहद की ऊपर वर्णित सारी कथा कह सुनाई । उत्पला की बात को सुनकर भीम कूटग्राह ने उसे आश्वासन देते हुए कहा कि भद्र! तू चिन्ता न कर, मैं ऐसा यत्न अवश्य करूंगा, कि जिस से तुम्हारे दोहद की पूर्ति भली भांति हो सकेगी । इस लिये तू अब सारी उदासीनता को त्याग दे । "ओहय० जाव पासति"-"श्रोहय० जाव झियासि" "गो० सुरं च ५ आसाप०४" और "अविणिज्जमाणंसि जाव झियाहि" इत्यादि स्थलों में पठित ...-जाव -यावत्-" पद से तथा बिन्दु और अंकों के संकेत से प्रकृत अध्ययन में ही उल्लिखित सम्पूर्ण पाठ का स्मरण कराना सूत्रकार को अभीष्ट है । ___ "इट्ठाहिं जाव समासासेति' वास्य के "-जाव-यावत्-" पद से "कंताहि, पियाहिं, मणुन्नाहिं मणामाहि” इन पदों का ग्रहण करना । ये सब पद समानार्थक हैं । सारांश यह है कि- नितांत उदास हुई उत्पला को सान्त्वना देते हुए भीम ने बड़े कोमल शब्दों में यह पूर्ण अाशा दिलाई कि मैं तुम्हारे इस दोहद को पूर्ण करने का भरसक प्रयत्न करूंगा । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उत्पला के दोहद की पूर्ति का वर्णन करते हैं - मूल :-तते णं से भीमे कूड० अड्ढरत्तकालसमयंसि एगे अवीए सरणद्ध ० (१) प्राति नाम दु:ख या पीड़ा का है, उस में जो उत्पन्न हो उसे आर्त कहते हैं, अर्थात् जिस में दु:ख का चिन्तन हो उस का नाम आर्तव्यान है। वार्तध्यान के भेदोपभेदों का ज्ञान अन्यत्र करें । (२) छाया-तत: स भीमः कूटग्राहोऽर्द्धरात्रकालसमये एकोऽद्वितीयः संनद्ध० यावत् प्रहरण: स्वस्माद गृहान्निर्गच्छति, निर्गत्य हस्तिनापुर मध्यमध्येन यत्रैव गोमंडपस्तत्रैवोपागतः, उपागत्य बहूनां नगरगोरूपाणां यावद् वृषभाणां चाप्येकेषां ऊधांसि छिनत्ति, यावद् अप्येकेषां कम्बलान् छिनत्ति, अप्येकेषामन्यान्यान्यङ्गोपांगानि विकृन्तति, विकृत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य उत्पलाय कटग्राहिण्य उपनयति । ततः सा उत्पला भार्या तैर्बहुभिर्गोमांसैः शूल्यैः यावत् सुरां च ५ श्रास्वा० ४ तं दोहदं विनयति । ततः सा उत्पला कूटग्राही सम्पूर्णदोहदा, संमानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा, तं गर्भ सुखसुखेन परिवहति । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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