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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टोका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय ] ये सब मदिरा के ही अवान्तर भेद हैं । यद्यपि मेर आदि शब्दों के और भी बहुत से अर्थ उपलब्ध होते हैं, परन्तु यहां पर प्रकरण के अनुसार इन का मद्यविशेष अर्थ ही ग्राह्य है। अतः उसी का निर्देश किया गया है। 1 “श्रासापमाणीश्रो” आदि पदों की व्याख्या टीकाकार इस तरह करते हैं - [१४५ "आसाएमाणीउ” त्ति ईषत् स्वादयन्त्यो बहु च त्यजन्त्य इक्षुखंडादेखि | "विसाएमाणी " ति विशेषेण स्वादयन्त्योऽल्पमेव त्यजन्त्यः खजूरादेरिव । “परिभापमापीउ" त्ति ददत्यः । “परिभुजेमाणी" ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्त्यः ” अर्थात् इक्षुखण्ड (गन्ना) की भांति थोड़ा सा श्रास्वादन तथा बहुत सा भाग त्यागती हुई, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इक्षुखण्ड गन्ने को चूस कर रस का आस्वाद लेकर शेष – [रस की अपेक्षा अधिक भाग को फैंक दिया जाता है ठीक उसी प्रकार पूर्वोक्त पदार्थों को [जिन का अल्पांश ग्राह्य और बहु - अंश त्याज्य होता है ] सेवन करती हुईं, तथा खजूर - खजूर की भांति विशेष भाग का आस्वादन और स्वादन न कर दूसरों को भी वितीर्ण करती - बांटती भाग को छोड़ती हुई, तथा मात्र स्वयं ही आहुई और सम्पूर्ण का ही आस्वादन करती हुई दोहद पूर्ण कर रही 1 प्रस्तुत सूत्र में उत्पला के दोहद का वर्णन किया गया है, उत्पला चाहती है कि मैं भी पुण्यशालिनी माताओं की तरह अपने दोहद को पूर्ण करू ं, किन्तु ऐसा न होने से वह चिन्ताग्रस्त हो कर सूखने लगी और उस का शरीर मांस के सूखने से अस्थिपञ्जर सा हो गया । तथा वह सर्वथा मुझ गई । प्रस्तुत सूत्र पाठ में - सुक्खा-शुष्का – ” आदि सभी पद उस के विशेषण रूप में निर्दिष्ट हुए हैं। उन की व्याख्या इस प्रकार है 66 1 १" - शुष्का – ११ रुधिरादि के क्षय हो जाने के कारण उस का शरीर सूख गया । २ बुभुक्षाभोजन न करने से बलहीन हो कर बुभुक्षिता सी रहती है । ३ निर्मासा - भोजनादि के प्रभाव से शरीरगत मांस सूख गया है । ४ अवरुग्णा - उदास – इक्छाओं के भग्न हो जाने से उदास सी रहती है। ५ रुग्ण शरीरा - निर्बल अथवा रुग्न शरीर वालो | ६ निस्तेजस्का - तेज - कांति रहित । ७ दोनविमनो- वदना' - शोकातुर अथच चिन्ताग्रस्त मुख वाली। यहां - दीना चासौ विमनोवदना च"ऐसा विग्रह किया जाता है । किसी २ प्रति में " - दीपविमण हीणा -" ऐसा पठान्तर मिलता हैं। टीकाकार इस विशेषण की निम्नोक्त व्याख्या करते हैं “ - दीना दैन्यवती, विमनाः शून्यचित्ता होणा च भीतेति कम धारयः - " अर्थात् बह दोनता, मानसिक अस्थिरता तथा भय से व्याप्त थी । ८ " पांडुरितनु वो" उस का मुख पीला पड़ गया था । ९ “ – श्रवमथित - नयन- वदन- कमला- " जिस के नेत्र तथा मुखरूप कमल मुर्झाया हुआ था। टीकाकर ने इस पद की व्याख्या इस प्रकार की है For Private And Personal ८८ “ - श्रधोमुखी कृतानि नयनवदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा " अर्थात् जिस ने कमलसदृश नयन तथा मुख नीचे की ओर किये हुए हैं । इसी लिये वह यथोचित रूप से पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य [ फूलों की माला ] अलंकार - भूषण तथा हार आदि का उपभोग नहीं कर रही थी । तात्पर्य यह है कि दोहद की पूर्ति के न होने से उस ने शरीर का शृङ्गार करना भी छोड़ दिया था, और वह करतल मर्दित - हाथ के मध्य में रख कर हथेली से मसली गई कमल माला को भांति शोभा रहित, उदासीन और किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो कर उत्साहशून्य एवं चिन्तातुर हो रही थी । (१) विमनस इव विगतचेतस इव वदनं यस्याः सेति भावः ।
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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