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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दूसरा अध्याय ] www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । सेवा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पड़िगाहित्ता तं पुत्र्वमेव सेहतरागस्स उवदंसे पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहम्स' | [ दशाश्रुत० ३ दशा, १५] अर्थात् शिष्य, अशन पान, खादिम और स्वादिम पदर्थों को लेकर गुरुजनों से पूर्व ही यदि शिष्य आदि को दिखाता है तो उस की श्राशातना लगती है । तथा हार दिखलाने के बाद फिर आलोचना करनी भी यावश्यक है । तात्पर्य यह है कि अमुक पदार्थ अमुक गृहस्थ के घर से प्राप्त किया अमुक गृहस्थ ने इस प्रकार भिक्षा दी अमुक मार्ग में अमुक पदार्थ का अवलोकन किया एवं अमुक दृश्य को देख कर अमुक प्रकार की विचार--धारा उत्पन्न हुई इत्यादि प्रकार की आलोचना भी सर्व प्रथम रत्नाधिक से ही करे अन्यथा आशातना लगती है जिस से सम्यग दर्शन में क्षति पहुंचने की सम्भावना रहती है इसी शास्त्रीय दृष्टि को सन्मुख रख कर गौतम स्वामी ने लाया हुआ आहार सर्व प्रथम भगवान् को ही दिखलाया तदनन्तर बन्दना नमस्कार कर के अपनी गोची यात्रा में उपस्थित हुआ सम्पूर्ण दृश्य उनके सन्मुख अपने शब्दों में उपस्थित किया । तदनन्तर जिज्ञासु भाव से गौतम स्वामी ने भगवान् के सन्मुख उपस्थित हो कर उस वव्य पुरुष के पूर्वभव के विषय में पूछा । (२) उज्जुप्पन्नो Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir यहां पर सन्देह होता है कि गौतम स्वामी स्वयं चतुर्दशपूर्व के ज्ञाता और चार ज्ञान --मति, श्रुल, और मनः पर्यव के धारक थे ऐसी अवस्था में उन्हों ने भगवान् से पूछने का क्यों यत्न कियाक्या वे उस व्यक्ति के पूर्वभव को स्वयं नहीं जान सकते थे ? इस विषय में आचार्य अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र श० १ उद्द े ० १ में स्वयं शंका उठा कर उस का जो समाधान किया है, उस का उल्लेख कर देना ही हमारे विचार में पर्याप्त है। आप लिखते हैं' - अथ कस्माद् भगवन्तं गौतमः पृच्छति । विरचितद्वादशाङ्गतया विदितसकलभतविषयत्वेन निखिलसंशयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य श्राह च - 66 संभवे साहजं वा परो उ पुच्छेज्जा । ण य णं णाइसेसी वियाणइ एस छउमत्थो ||१|| इति नेवम् उक्तगुणत्वेऽपि छस्थतयाऽनाभोगसंभवाद् यदाह - नहि नामाऽभोगः छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । यस्माद् ज्ञानावरणं ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥१॥ इति, अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभव ति, स्वकीयबोधसंवादनार्थम्, अज्ञलोकबोधनार्थम्, शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनाथम्, सत्ररचनाकल्प संपादनार्थञ्च ति - " । इन शब्दों का भावार्थ निम्नोक्त है - भवे ॥ ९० ॥ १३५ प्रश्न - गौतम स्वामी के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि द्वादशांगी के रचयिता हैं, सकलभूतविषय के ज्ञाता है, निखिल संशयों से अतीत-रहित ( जिन के सम्पूर्ण संशय विनष्ट हो चुके ) हैं तथा जो (१) छाया - शैक्षोऽशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा प्रतिगृश्य तत्पूर्वमेत्र शैक्षतरकस्योपदर्शयति पश्चाद रात्निकस्याथातना शैक्षस्य । गुरुसमासे जं जहा महि व्विग्गों, अवक्खितेय चैसा । आलोए ( दशनैकालिक सू० ० ५२०१ ।) (३) संख्यातीतांस्तु भवान् कथयति यद् परस्तु पृच्छेत् । न चानविशेषी विजानात्येष छद्मथः ॥eti For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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