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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अध्याय 1 हिन्दी भाषा टीका सहित | के राजमार्ग में जो कुछ देखा और देखने के बाद उस पुरुष की पापकर्मजन्य होनदशा पर विचार करते हुए वे वापिस भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और लाई हुई भिक्षा दिखाकर उन को वन्दना नमस्कार करके वहां का अथ से इति पर्यन्त सम्पूर्ण वृत्तान्त भगवान् से कह सुनाया । सुनाने के बाद उस पुरुष के पूर्व -भव - - सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की इच्छा से भगवान् से गौतम स्वामी ने पूच्छा कि भदन्त ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? कहां रहता था ? और उस का क्या नाम और गोत्र था ? एवं किस पापमय कर्म के प्रभाव से वह इस हीन दशा का अनुभव कर रहा है ? "त्थिते ५" यहां दिये हुए ५ के क से – “कप्पिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे - " इस समग्र पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभीष्ट है । आध्यत्मिक का अर्थ श्रात्मगत होता है । कल्पित शब्द हृदय में उठने वाली अनेकविध कल्पनाओं का वाचक है । चिन्तित शब्द से बार बार किए गए विचार, - यह अभिमत है । प्रार्थित पद का अर्थ है -- इस दशा का मूल कारण क्या है इस जिज्ञासा का पुनः २ होना । मनोगत शब्द - जो विचार अभी बाहिर प्रकट नहीं किया गया, केवल मन में ही है - इस अर्थ का परिचायक है । संकल्प शब्द सामान्य विचार के लिये प्रयुक्त होता है । ८८ - अहो णं इमे पुरिसे जाव निरय--" इस वाक्य में पठित “ - जाव यावत् पद से “ – अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कं तारणं असुभारणं पावाणं कड़ाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चरणुभवमाणे विहरइ, न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पञ्चकखं खलु अयं पुरिसे निरय-- पड़िरूवियं वेयणं वेइति कट्ट -"' इस समग्रपाठ का ग्रहण करना । इस पाठ की व्याख्या प्रथम अध्ययन के पृष्ठ ४७ पर कर दी गई है। पाठक वहीं से देख सकते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal | १३३ "" -- - जाव-यावत् " - मञ्झ मज्भेणं जाव पडिदंसति — " यहां पठित “ पद से " - -निगच्छति २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ समणस्स भगवओ महावीरस्स दूर सामन्ते गमागमगाए पडिक्कमइ २ एसएमसणे आलोएइ २ भचपारण- इन पदों का ग्रहण समझना । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है # वाणिजग्राम नगर के मध्य में से हो कर निकले, निकल कर जहां भगवान् रहावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर श्राए श्राकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया अर्थात् आने और जाने में होने वाले दोषों से निवृत्ति की, तदनन्तर एषणीय ( निर्दोष) और अनेषणीय ( सदोष ) आहार की आलोचना (विचारणा अथवा प्रायश्चित के लिये अपने दोषों को गुरु के सन्मुख निवेदन करना) की, तदनन्तर भगवान वीर को आहार पानी दिखलाया । " - तहेव जाव वेएति" यहां पठित" - तद्देव तथैव- - " पद का अभिप्राय है-भगवान से आज्ञा ले कर जैसे अनगार गौतम बेले के पारणे के लिये गये थे इत्यादि वैसा कह ना त् गौतम स्वामी भगवान् से कहने लगे- प्रभो ! आप की आज्ञा लेकर मैं वाणिजग्राम नगर के उच्च नीच और मध्य सभी घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करता हुआ राजमार्ग पर पहुँच गया, वहां मैंने हाथी देखे इत्यादि वर्णन जो सूत्रकार पहले कर आए हैं उसी को तथैव-वैसे ही, इस पद से अभिव्यक्त किया गया है । और ८. '- जाव यावत्- पद से वर्णक - प्रकरण को संक्षिप्त किया गया है । वह वर्णकपाठ निम्नोक्त है - " 1 “ – नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलानि घरसमुदायस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव 39
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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