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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय समुप्पज्जित्था, अहो णं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति, त्ति कट्ट वाणियग्गामे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अड़माणे अहापज्जत्तं समुयाणं गेएहति २ त्ता वाणियग्गामं नगरं मझमझेणं जाव पडिदंसति. समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति २ एवं वयासि-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुएणाते समाणे वाणियग्गामे तहेव जाव वेएति । से णं भंते ! पुरिसे पुत्रभवे के आसि ? जाव पच्चणुभवमाणे विहरति ? पदार्थ-तते णं- तदनन्तर । से- उस । भगवतो गोतमस्स-भगवान् गौतम को। तं पुरिसंउस पुरुष को । पासित्ता-देख कर । इमे-यह । अज्झत्थिते-आध्यात्मिक-संकल्प । समुप्पज्जित्थाउत्पन्न हुअा। अहो णं-अहह - खेद है कि । इमे पुरिसे-यह पुरुष । जाव-यावत् । निरयड़िरूवियं-नरक के सदृश। वेयणं-वेदना का । वेदेति-अनुभव कर रहा है । त्ति कह - ऐसा विचार कर । वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नामक । णगरे-नगर में । उच्चनीयमज्झिमकुले-ऊचे नीचे-धनिक निर्धन तथा मध्य कोटी के गृहों में । अड़माणे-भ्रमण करते हुए । अहापजत्त-आवश्यकतानुसार । समुयाणंसामुदानिक-भिक्षा, गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा । गएहति रत्ता - ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर के । वाणियग्गामं नगरं-वाणिज –ग्राम नगर के । मझमझेणं-मध्य में से । जाव-यावत् । पडिदंसतिभगवान् को भिक्षा दिखलाते हैं तथा । समणं भगवं महावीर-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को । वंदति णमंसति-वन्दना और नमस्कार करते हैं, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर । एवं वयासीइस प्रकार कहने लगे । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । भंते !-हे भगवन् !। अहं-मैं । तुब्भेहिं अब्भणुराणाते समाणे-आप श्री से आज्ञा प्राप्त कर । वाणियग्गामे-वाणिजग्राम नगर में गया । तहेव-तथैव । जाव- यावत् , एक पुरुष को देखा जो कि नरक सदृश वंदना को । वेएति-अनुभव कर रहा है । भंते !- हे भगवन् ! । से णं- वह । पुरिसे-पुरुष । पुव्वभवेपूर्वभव में। के आसि-कौन था ? । जाव- यावत् । पच्चणुभवमाणे-वेदना का अनुभव करता हुआ । विहरति-समय बिता रहा है ? मूलार्थ-तदनन्तर उस पुरुष को देख कर भगवान् गौतम को यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष कैसी नरक तुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है । तत्पश्चात् वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच, मध्यम अर्थात् धनिक, निर्धन और मध्य कोटि के घरों में भ्रमण करते हुए आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वाणिजग्राम नगर के मध्य में से होते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आये और उन्हें लाई हुई भिक्षा दिखलाई । तदनन्तर भगवान को वन्दना नमस्कार करके उन से इस प्रकार कहने लगे हे भगवन् ! आप की आज्ञा से मैं भिक्षा के निमित्त वाणिज--ग्राम नगर में गया और वहां मैंने नरक सदृश वेदना का अनुभव करते हुए एक पुरुष को देखा । भदन्त ! वह पुरुष पूर्व भव में कौन था ? जो यावत् नरक तुल्य वेदना का अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है ? टीका-भगवान् से आज्ञा प्राप्त कर भिक्षा के निमित्त भ्रमण करते हुए गौतम स्वामी ने वहां भिरभ्यनुज्ञातः सन् वाणिजग्रामे तथैव यावत् वेदयति । स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे कः आसीत् ? यावत् प्रत्यनभवन विहरति । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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