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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [११७ १८ 'देशों की भाषा-बोली से कामध्वजा गरिएका सुपरिचित थी, इस वर्णन मे यह स्पष्ट हो जाता है कि गणिका जहां काम - शास्त्र वर्णित विशेष रतिगण आदि में निपुणता लिये हुए थी वहां वह भाषाशास्त्र वैद्य से भी परिपूर्ण थी, और असाधरण एवं सर्वतोमुखो मस्तिष्क की स्वामिनी थी । ' - सिंगारागार चारुवेसा-शृङ्गारागारचारुवेषा - अर्थात् उस का सुन्दर वेश शृङ्गार रस का घर बना हुआ था | तात्पर्य यह है कि उस को वेष-भूषा इतनी मनोहर थी कि उस से वह शृङ्गार रस की एक जीतीजागती मूर्ति प्रतीत होती थी । “ – गीय-रति गन्धव्व - नह कुसला - गीत - रतिगान्धर्व नाट्य कुराला - अर्थात् वह गीत, रति, गान्धर्व और नाट्य आदि कलाओं में प्रवीण थी । तात्पर्य यह है कि वह एक ऊंचे दर्जे की कलाकार थी । गीत संगीत का ही दूसरा नाम है । रतिक्रीडाविशेष को कहते हैं । गान्धर्व - नृत्ययुक्त संगीत का नाम है, और केवल नृत्य की नाट्य संज्ञा है [गान्धर्व नृत्युक्तगीतम्, नाट्य तु नृत्यमेवेति वृत्तिकारः ] “ – संगत गत – " इस निर्देश से ग्रहण किया जाने वाला समस्त पाठ वृत्तिकार अभयदेव सूरि के उल्लेखानुसार निम्नलिखित है "संगय-गय- भणिय विहित-विलास सजलिय संलात्र- निउरण- जुत्तोवयार - कुसला" इनि दृश्यम् संगतान्युचितानि गीतादीनि यस्याः सा तथा सललिता प्रसन्नतोपेता ये संलापास्तेषु निपुणा या सा तथा, युक्ताः संगता ये उपचारा व्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः " अर्थात् उस के गमन, वचन और विहित चेष्टायें, समुचित थीं, वह मन को लुभाने वाले संभाषण में निपुण थी, और व्यवहारज्ञ एवं व्यवहार कुशल थी । .. << Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सुन्दरत्थण०" आदि समग्रपाठ का वृत्ति में विवरण पूर्वक इस प्रकार निर्देश किया हैसुन्दर त्थ-जहण वयण-कर-चरण- नयण-लावरण-विलास - कलिया " इति व्यक्तम्, नवरं जघनं पूर्व: कटिभागः लावण्यमाकारस्य स्पृहणीयता, विलासः स्त्रीणां चेष्टाविशेषः " । अर्थात् उसके ર स्तन, २ जवन ( कमर का अग्रभाग), बदन (मुख), कर (हाथ), चरण और नयन प्रभृति अंगप्रत्यंग बहुत सुन्दर (१) स्वतन्त्ररूप से १८ देशों का नाम कहीं देखने में नहीं आया परन्तु राजप्रश्नीय आदि सूत्रों में १८ देशों की दामियों का वर्णन मिलता है, उसी के आधार से ये १८ नाम संकलित किये गए हैं। (२) कामी पुरुष स्त्री के स्तन, मुखादि अंगों को किन २ से उपभित करते हैं, अर्थात् इन को किस २ की उपमा देते हैं तथा ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में उन का वास्तविक स्वरूप क्या है ? उस के लिये भर्तृहरि जी का निम्नोक श्लोक श्रवश्य अवलोकनीय है - स्तनौ मांस-ग्रन्थी, कनक कलशावित्युपमितौ । मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशांकेन तुलितम् ॥ स्रवन्मूत्र- क्लिन्नं, करिवरकरस्पर्द्धि जघनम् । हो ! निन्द्यं रूपं, कविजनविशेषैः गुरुकृतम् || १ || [ वैराग्यशतक ] अर्थात् - यह कितना आश्चर्य है कि स्त्री के नितान्त गर्हित स्वरूप को कविजनों ने अत्यन्त सुन्दर पदार्थों से उपमित करके कितना गौरवान्वित कर दिया है जैसे कि उसके वक्षस्थल पर लटकने वाली मांस की ग्रन्थियों स्तनों को दो स्वर्ण घटों के समान बतलाया, श्लेष्मा बलगम के आगार रूप मुख को चन्द्रमा से उपमित किया और सदा मूत्र के परिस्राव से भीगे रहने वाले जघनों उरुत्रों को श्रेष्ठ हस्ती की संड से स्पद्धी करने वाले कहा है । तात्पर्य यह है कि कवि-जनों का यह रित पक्षपात है जो कि वास्तविकता से विचा दूर है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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