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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय स्त्रोणां तु विशया एव प्राय इति । चउसहि-गणिया-गुणोववेया-चतुष्पष्टिगणिका -गुणोपेता- अर्थात् वह कामध्वजा गणिका, कामसूत्र वर्णित गणिका के ६४ गुण अपने में रखती थी। वात्स्यायन कामसूत्र में अष्टविध आलिंगन वर्णित हुए हैं, उन आठों में प्रत्येक के आठ आठ भेद होने से ६४ भेद गणिका के गुण कहलाते हैं । वात्स्यायनोकतान्यालिंगनादीन्यष्टौ वस्तूनि, तानि च प्रत्येकमष्टभेदत्वाच्चतुःषष्टिर्भवन्ति चतुःषष्ट्या गणिकागुणैरुपेता या सा तथेति वृत्तिकारः। “एगूणतीस विसेसे रममाणी–एकोनत्रिंशद्विशेष्यां रममाणा-" यहां पठित जो विशेष पद है उस का अर्थ है-विषय अथवा विषय के गुण । विषय के गुण २९ होते हैं, इन में कामध्वजा गणिका रमण कर रही थी अर्थात् गणिका विषय के २९ गुणों से सम्पन्न थी । वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में विषयगुणों का विस्तृत विवेचन किया गया है। "-एक्कवीसरतिगुणप्पहाणा-एकविंशतिरतिगुणप्रधाना-" अर्थात् कामध्वजा गणिका २१ रतिगुणों में प्रधान-निपुण थी । मोहनीयकर्म की उस प्रकृति का नाम रति है जिस के उदय से भोग में अनुरम्ति उत्पन्न होती है, अथवा मैथुनक्रीड़ा का नाम भी रति है। रति के गुण (भेद) •१ होते हैं, उन में यह गणिका निपुण थी । रतिगुणों का सांगोपांग वर्णन वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है । ___-बत्तीस-पुरिसोवयर-कुसला-द्वाविंशत् - पुरुषोपचारकुशला-" अर्थात् पुरुषों के ३२ उपचारों में वह कामध्वजा गणिका कुशल थी । उपचार का अर्थ होता है-आदर, सत्कार अथवा सभ्योचित व्यवहार । इन उपचारों में वह गणिका सिद्धहस्त थी। उपचारों का सविस्तृत व्याख्यान वात्स्यायन कामसूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है। "नवंगसुत्तपडिबोहिया-प्रतिबोधितसुप्तनवांगा-"अर्थात् जगा लिये हैं सोये हुए नवांग जिसने, तात्पर्य यह है कि बाल्यकाल में सोये हुए नव अंग जिस के इस समय जागे हुए हैं अथवा जिसके नेत्र प्रभृति नव अंग पूर्णरूप से जागृत हैं । इसका भावार्थ यह है कि मानवी व्यक्ति की बाल्य अवस्था में उस के दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्व वा और एक मन ये नौ अंग जागे हुए नहीं होते अर्थात् इन में किसी प्रकार का विकार (कामचेष्टा) उत्पन्न हुअा नहीं होता ये उस समय निर्विकार-विकार से रहित होते हैं। यहां निर्विकार की सुप्त ओर विकृत की प्रबुद्ध ---जागृत संज्ञा है । जिस समय युवावस्था का अागमन होता है, उस समय ये नौ ही अग जाग'उठते हैं, अर्थात् इन में विकार उत्पन्न हो जाता है। इस से सत्रकार ने उक्त विशेषण द्वारा कामध्वजा को नवयुवती प्रमाणित किया है। "-अट्ठारस-देसीभासा -विसारया-अष्टादशदेशीभाषा-विशारदा-' अर्थात् १-चिलात (किरात-देश), २-बर्वर (अनार्य देशविरोष), ३ -बकुश (अनार्य देश विशेष ), ४-यवन (अनार्य देशविशेष), ५-पह्नव ( अनार्य देशविशेष ). ६ - इसिन ( अनार्य देशविशेष), ७-च रुकिनक, ८-लासक (अनार्य देशविशेष), ९-लकुश ( अनार्य देशविशेष ), १०- द्रविड़ ( भारतीय देश ), ११- सिंहल द्वीप । लंका द्वीप), १२ ---पुलिंद ( अनार्य देशविशेष ), १३-अरब (अरबदेश ). १४- पक्कण ( अनार्य देशविशेष), १५-बहलो ( भारत वर्ष का एक उत्तरीय देशः, १६-मुरुण्ड ( अनार्य देशविशेष ), १७- शबर ( अनार्य देशविशेष ), १८--पारस(फारस-ईरान ) इन (१) द्वे श्रोत्रे, द्वे चक्षुषी, द्वे घ्राणे, एका जिव्हा, एक त्वक , एकं च मनः इत्येतानि नवांगानि सुप्तानीव सुप्तानि यौवनेन प्रतिबोधितानि - स्वार्थग्रहणपटुतां प्रा पतानि यस्याः सा तथा (वृत्तिकार:) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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