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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अन्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित भेदः -" यह अथ लिखा है. इस भोगे बिना छुटकारा नहीं पा सकते । तात्पर्य यह है कि कर्मों का फल भोगना अवश्वंभावी है, बिना भोगे कर्मों से छुटकारा नहीं हो पाता । तथा “अत्युपपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते” अर्थात् यह जीव अत्यन्त उग्र पुण्य और पाप का फल यहीं पर भोग लेता है-इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में एक साथ ही सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए। जो रोग अत्यन्त कष्टजनक हों तथा जिन का प्रतिकार कष्टसाध्य अथवा असाध्य हो उन्हें रोगातंक कहते हैं। वे निम्नलिखित हैं (१) श्वास (२) कास (३) ज्वर (४) दाह (५) कुक्षिशूल (६) भगन्दर (७) अर्श-बवासीर (८) अजीर्ण (९) दृष्टि-शूल (१०) मस्तकशूल (११) अरोचक (१२) अक्षिवेदना (१३) कर्णवेदना (१४) कण्डू - खुजली (१५) दकोदर --जलोदर (१६) कुष्ठ --कोढ़ । ये १६ रोग एकादि के शरीर में एक दम उत्पन्न हो गए । श्वास, कास आदि रोगों का सांगोपांग व्याख्यान तो वैद्यक ग्रन्थों में से जाना जा सकेगा परन्तु संक्षेप में यहां इन का मात्र परिचय करा देना आव यक प्रतीत होता है - (१) श्वास --अभिधान राजेन्द्र कोश में श्वास शब्द का--"अतिशयत ऊर्वश्वासरूपरोग खा है, इसका भाव है-तेज़ी से सांस का ऊपर उठना अर्थात्-दम का फलना, दमे की बीमारी । श्वास एक प्रसिद्ध रोग है, इसके- 'महाश्वास, ऊर्ध्वश्वास, छिन्नश्वास, तमकश्वास, और क्षुद्रश्वास ये पांच भेद कहे हैं २ जब वायु का के साथ मिलकर प्राण जल और अन्न के बहने वाले स्रोतों को रोक देता है तब अपने आप कफ से रुका हुआ वायु चारों और स्थित होकर श्वास को उत्पन्न करता है । (२) कास-कासरोग भी वात, पित्त, कफ, क्षत और क्षय भेद से पांच प्रकार का है । इस का निदान और लक्षण इस प्रकार वर्णन किया है धूमोपघाताद्रजसस्तथैव, व्यायामरूतान्ननिषेवणाच्च । विमार्गगत्वाच्च हि भोजनस्य, वेगावरोधात् तवथोस्तथैव ॥१॥ प्राणों ा दानानुगतः प्रदुष्टः, संभिन्नकांस्यस्वनतुल्यघोषः ।। निरोति वक्रात सहसा सदोषो मनीषिभिः कास' इति प्रदिष्टः ॥२॥ (माधवनिदाने कासाधिकारः) अर्थात् ... नाक तथा मुख में रज और धूम के जाने से, अधिक व्यायाम करने से, नित्य प्रति रूक्षान्न के सेवन से, कुपथ्यभोजन से, मलमूत्र के अवरोध तथा अाती हुई छींक को, रोकने से, प्राणवायु अत्यन्त दुष्ट होकर और दुष्ट उदान वायु से मिलकर कफ पित्त युक्त हो सहसा मुख से बाहर निकले, उस का (१) महोर्ध्वच्छिन्नतमकक्षुद्रभेदैस्तु: पंचधा । भिद्यते स महाव्याधिः श्वास एको विशेषत. ॥१५॥ (२) यदा स्रोतांसि संरुध्य मारुतः कफपूर्वकः । विश्वग व्रजति संरुद्धस्तदा श्वासान् करोति सः ॥१७॥ [ माधवनिदाने - श्वासाधिकार ] (३) (क) कसति शिरः कंठादूर्ध्व गच्छति वायुरिति कासः । अर्थात् जो वायु कंठ से ऊपर सिर की ओर जाय उस को कास कहते हैं। (ख) अभिधान राजेन्द्र कोष में कास शब्द का "-केन जलेन कफात्मकेन अश्यते व्याप्यते इति कासः-" ऐसा अर्थ लिखा है । इस का भाव है ---कफ का बढ़ना, अर्थात् खांसी का रोग । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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