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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८] श्री विपाक सूत्र - [अध्याय कि मैंने सुना है। इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी यह कहता है कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। तथा इस से विपरीत नहीं देखे, नहीं बोले, नहीं ग्रहण किये, और नहीं जाने हुए के सम्बन्ध में कहता है कि मैंने देखा है, बोला है, ग्रहण किया है तथा जाना है। इस प्रकार के वंचनामय यवहार को उस ने अपना कर्तव्य समझ लिया था । मायाचार करना ही उसके जीवन का प्रधान कार्य था और प्रजा को व्याकुल करना ही उस का विज्ञान था, एवं उस के मत में मनमानी करना ही एक सर्वोत्तम आचरण था । वह एकादि राष्ट्रकूट कलह- दु:ख के हेतु भूत अत्यन्त मलिन पापकर्मों का उपार्जन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगातंक-जीवन के लिये अत्यन्त कष्टोत्पादक, कष्टसाध्य अथवा असाध्य रोग उत्पन्न हो गए। जैसेकि --श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिमूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण दृष्टिशूल,मस्तकशूल, अरुचि, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, कंडू - खुजली, जलोदर और कुष्ठरोग । टीका-प्रस्तुत सूत्र में एकादि राष्ट्रकूट के नैतिक जीवन का चित्रण किया गया है। वह विजयवर्द्धमान खेट में रहने वाले मांडलिक, युवराज आदि तथा अन्य ग्रामीण पुरुषों के अनेकविध कार्या, कारणों, गुप्त-निश्चयों और विवादनिर्णयों अथवा व्यवहारिक बातों की यथारुचि अवहेलना करने में प्रवृत्त था, तदनुसार सुने हुए को वह कह देता था कि मैंने नहीं सुना, और नहीं सुनने पर कहता कि मैंने सुना है, इसी प्रकार देखने, बोलने, ग्रहण करने और जानने पर भी मैंने नहीं देखा, नहीं बोला, नहीं ग्रहण किया और नहीं जाना तथा न देखने, न बोलने, न ग्रहण करने और न जानने पर कहता कि मैं देखता हूँ, बोलता हूँ, ग्रहण करता और जानता हूँ । सारांश यह है कि उस की प्रत्येक क्रिया मनमानी और प्रजा के लिये सर्वथा अहितकर थी। _ "-राईसर० जाव सत्थवाह.णं-" के " जाव - यावत्" पद से --"तलवर -माडंवियकोडु बियसत्थवाहाणं -" पाठ का ग्रहण कर लेना । इन पदों का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका तब एवंविध कर्मों में समुद्यत, एवं पातकमय कर्मों के आचरण में निपुण वह एकादि दुःखों के उत्पादक अत्यन्त नीच और भयानक पापकमां का संचय करता हुअा जीवन बिता रहा था । परन्तु स्मरण रहे कि शास्त्रीय कथन के अनुसार किये हुए पाप कर्मों का फल भोगना अवश्य पड़ता है । कर्मों के विना भोगे उन से छुटकारा कभी नहीं हो सकता। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी इस बात का निम्नोक्त शब्दों द्वारा समर्थन करते हैं, जैसे कि --- तेणे' जहा सन्धिमुहे गहोए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मुक्खु अत्थि ॥ (उत्तराध्ययन सत्र अ० ४-३) अर्थात् - सेंध लगाता हुआ पकड़ा जाने वाला चोर जिस प्रकार अपने किए हुए पापकर्मों से मारा जाता है, उसी प्रकार शेष जीव भी इस लोक तथा परलोक में अपने किये हुए कर्मों को (१) छाया- स्तेनो यथा सन्धि -- मुखे गृहीतः, स्वकर्मणा कृत्यते पापकारी। एवं प्रजा प्रेत्येह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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