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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ विचारपोथी ५६२ वेदमें ईश्वरको 'सुरूप-कृत्नु' कहा है। सुन्दर सृष्टि बनाने वाला स्वयं कितना सुन्दर होगा ! _५६३ __ अल्पश्रद्धावाले मनुष्यको लोग परमार्थ हज़म नहीं होने देते, यह लोगोंका उपकार है। ५६४ साधककी साधनामें ऐसी एक अवस्था आती है, जबकि उसे आगे विचार करनेके लिए किसी पालम्बनकी आवश्यकता होती है। उसके बिना हिम्मत टूट जाती है, निश्चय डगमगाने लगता है, बुद्धि साशंक हो जाती है। यह कसौटीका समय होता है। ५६५ सब दानोंमें अभय-दान श्रेष्ठ है । और वह देनेकी सामर्थ्य मुक्तके सिवा, अर्थात् ईश्वरके सिवा, किसीमें नहीं है। स्वप्नजय दो तरह का होता है : (१) सुस्वप्नता, (२) निःस्वप्नता। सुषुप्तजय याने सुषुप्तिमें विचारोंका नित्यविकास । ५६७ उन्मनीमें सृष्टिकी पहचान नहीं । सहज स्थितिमें पहचान होकर भी पहचान नहीं। उन्मनी कालपरिच्छिन्न है। सहजस्थिति नित्य है। ५६८ निंदा-स्तुतिकी बाद-बाकी करनेवाला मनुष्य अपने आप मुक्त हो जाता है। ५६६ - अपरिग्रहका वास्तविक अर्थ देह-भाव नष्ट होना है, क्योंकि देह ही मुख्य परिग्रह है। For Private and Personal Use Only
SR No.020891
Book TitleVichar Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinoba, Kundar B Diwan
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1961
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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