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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विचार पोथी परन्तु वह अपने में सर्व समुदायकी - विश्वात्माकी - कल्पना करके करने की है । २३१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३० पाश्चात्य भाषाओं में 'सन्तोंका अनुवर्तन' यह प्रयोग पाया जाता है । अपने यहां 'सन्तोंका गुणगान' कहते हैं । 'गुणगान' कहने में नम्रता है । पर उसमें यदि 'अनुवर्तन' गृहीत हो तभी वह नम्रता शोभा देगी । ईश्वर आदर्शमूर्ति ध्येय, गेय, अनुकरणीय । २३२ हमारे पास पांच इंद्रियां होने के में पांच विषय हैं । वास्तव में दुनिया में बिलकुल नहीं हैं । ३७ कारण 'हमारी' दुनिया अनन्त विषय हैं । अथवा २३३ → 'कला माने क्या ?' - यह प्रश्न पूछा जाता है; वास्तवमें, 'कला किस व्यक्तिकी या ' 'किस चीजकी ? - यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए | उत्तर - 'आत्माकी ' ; अर्थात् अमर अर्थात् अतीन्द्रिय परन्तु बुद्धिग्राह्य । बुद्धिसे परे अकल आत्मा । कृति कला नहीं है । कृतिमें कला होती है या नहीं होती । हनुमानजी जब एकाएक मोती फोड़कर उसमें 'राम' है या नहीं, देखते थे तब वे उसमें आत्माकी 'कला' दिखती है या नहीं, यह देख रहे थे । २३४ सात्त्विकता दो प्रकार की होती है : कर्तरि और कर्मणि । कर याने अपना जोर चलानेवाली । कर्मरिण याने प्रवाह में बहनेवाली | कर्तरि सात्त्विकता परमार्थोपयोगी है । कर्मरिण सात्त्विकता 'संसार' अच्छा करती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020891
Book TitleVichar Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinoba, Kundar B Diwan
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1961
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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