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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ पारिभाषिकः ॥ ३७ बहुव्रीहिसमासमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है अर्थात् जिन दो वा अधिक पदों का समास किया जावे उन पदों से पृथक् पद वाच्य अन्य पदार्थं कहाता है जैसे (चित्रा गावो यस्य स चित्रगुः, शवलगुः ) यहां गौओं का विशेषण (चित्रगुण) और गौ इन दोनों पदों से भिन्न इन का स्वामी ( चित्रगु ) कहाता है इसी प्रकार (सर्व दिर्येषां तानि सर्वादीनि ) यहां सर्व और आदि दोनों शब्द से पृथक् अन्यपदार्थ लिया जावे तो सर्वग्रब्दको सर्वनाम संज्ञा नहीं होसके इसलिये यह परिभाषा है। ६८ - भवति हि बहुव्रीहौ तद्गुएासं विज्ञानमपि ॥ ०१।१।२७॥ बहुव्रीहि दो प्रकार का होता है एक ( तद्गुणसंविज्ञान ) और दूसरा ( अतगुणसंविज्ञान ) तद्गुणसंविज्ञान उस को कहते हैं कि जहां उस अन्य पदार्थ के साथ उसके निज गुणों का समवायसम्बन्ध हो जैसे (लम्बकर्णः, तुङ्गनासिकः, दीर्घबाहु:, क्लृप्तकेशनखश्मश्रुः) इत्यादि में अन्य पदार्थ का बोध कान आदि के सहित होता है । तद्गुणसंविज्ञान वह है कि जिन पदों का समास किया जावे उन से अन्य पदार्थ का पृथक् सम्बन्ध बना रहे कि जैसे ( चित्रगु ) शब्द में दिखा दिया है । इस से सर्वादि में भी तद्गुणसंविज्ञान मान के सर्व शब्द कोभी सर्वनामसंज्ञा हो जाती है । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये ॥ ६८ ॥ जहां समास को अन्तोदात्त स्वर कहा है वहां (ब्राह्मणसमित्, राजदृषत् ) इत्यादि प्रयोगों के अन्त में तकार है तो विधानसामर्थ्य से उस व्यञ्जन काही उदात्त होजाना चाहिये 'इत्यादि सन्देह को निवृत्ति के लिये यह परि० ॥ ६९ - हल्स्वरप्राप्तौ व्यंजनम विद्यमानवद्भवति ॥ श्र० ६ १/२२३॥ က် व्यञ्जनको उदात्तादि स्वर प्राप्त होता वह व्यञ्जन श्रविद्यमानवत् होता है इससे ( ब्राह्मणस मित्) आदि प्रयोगों में अन्त्य तकार को अविद्यमानवत् मानके इकार * इस परिभाषा के आगे नागेश ने ( चामुक्कष्टं नात्तरत्र ) यह परिभाषा लिखो है सेा ठोकनहीं क्योंकि उसका मूल कहीं महाभाष्यसे वा मूचों से नहीं निकलता । और न कोई उदाहरण मुख्य प्रयोजन का दिया | + इस परिभाषा को नागेश भट्ट तथा अन्य लोग भी महाभाष्य से विरुद्ध लिखते पढ़ते हैं कि ( स्वरविधौ व्यञ्जनमविद्यमानवत्) ऐसा पाठ करने में महाभाष्यकारने ये दोषभौ दिखाये हैं कि उदात्तादि खरे के विधानमात्र में जो व्यञ्जन अविद्यमानवत् माना जाये तो (विद्युत्वान वलाहकः ) यहां विद्युत् के तकार को अवद्यमान मानें तो दुख से परे मतुप् का उदात्त खर ( छूखनुभ्यां०) सूत्र से प्राप्त है० इत्यादि अनेक दोष आयेंगे । और ( हल्वरप्राप्तौ० ) इस प्रकार की परिभाषा कोई दोष नहीं आता इसलिये नागेश आदि का मानना ठीक नहीं है । For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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