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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ पारिभाषिकः । अकारान्तकीत शब्दसे टाप होजावे पुनः अकारान्त होजानेसे अकारान्तसे विहित डोष प्रत्यय नहीं होवे तो(वस्त्रकोती) आदि प्रयोग भी सिद्ध न हो सके । उपपद, (मासवापिणी, ब्रीहिवापिणौ ) यहां प्रातिपदिकान्त नकार को णत्व होता है । सो जो सुबन्तों का ही समास करें तो समास को विवक्षा में ही नकारान्त (वापिन्) शब्दसे ङोप होकर पोछे समास हो तब उस ङोबन्त ( माषवापिनी) समुदाय को प्रातिपदिकसंज्ञा होवे तो प्रातिपदिकान्त ईकार के होने से फिर णत्व नहीं होसके । और जब केवल हादन्त वापिन् शब्द के साथ समास होता है तब केवल माषवापिन नकारान्त शब्दको प्रातिपदिकसंज्ञा होकर डीप होताहै तो प्राति. पदिकान्त नकार को णत्व होजाता है इत्यादि अनेक प्रोजन हैं ॥ ६६ ॥ (उगिदचा सर्वनामस्थानधातोः ) इस सूत्र में उगित् धातु के निषेध का यही प्रयोजन है कि (उखास्मत्, पर्णध्वत्) इत्यादि में नुम् आगम न हो सा यह प्रयो. जन तो (अज) धातु के ग्रहण से निकल जाता कि (उगित्) धातुको (नुम) श्रा. गम हो तो अञ्च हो को हो इस नियम से अन्य उगित् धातु का नुम् होता हो नहीं फिर अधातु ग्रहण व्यर्थ हुआ । इसके व्यर्थ होने रूप ज्ञापक से यह परि. भाषा निकली है। ६७-साम्प्रतिकाऽभावे भूतपूर्वगतिः ॥ जो पदार्थ वर्तमान काल में अपनी प्रथमावस्था से पृथक होगया होतो उसो पूर्वावस्था के सम्बन्ध से उस को वर्तमान में भी कार्य हो जैसे (गोमन्तमिलति,. गोमत्यति , गोमत्यते, विप,गोमान्) यहां प्रथम तो गोमान् प्रातिपदिक है पोछे उस से क्यच हुआ तो धातुसंज्ञा हुई फिर क्यच्प्रत्ययान्त से क्विप होने से धातु. मंशा उसको बनी रहो। सो पूर्व रहो प्रातिपदिकसंजा के स्मरण से पोछ धातुसंज्ञा के बने रहते भौ (नुम्) होता है अर्थात् अधातुनिषेध नहीं लगता इस से अधात निषेध भी सार्थक रहा । तथा (आत्मनः कुमारी मिकति, कुमारीयति, कमारीयतेः कर्तरि किप,कुमारी ब्राह्मणः,तस्मे कुमाय *ब्राह्मणाय) यहां कुमारों शब्द प्रथमावस्था में स्त्रीलिङ्गई कारान्त है तब तो स्न्याख्य ईकारान्त नदी. संज्ञा सिद्धहै पीछे जब पुल्लिङ्गवादी हो गया तब भी पूर्वावस्था के भूतपूर्व स्त्रीत्व को लेकर नदीसंज्ञा होके नदीसंज्ञा के कार्य भी होते हैं । इत्यादि अनेक प्रयो -- मतपर्वगति परिभाषा के मानने से कार्य भी चल जाता तथा अन्यत्र भी सब काम चलता है फिर बाहाणाय । इत्यादि प्रयोगसिद्धि के लिये नदीसंज्ञा मैं ( प्रथमलिजयहणच ) इम वाचिक का भी नही रहा क्योंकि इस परिभाषा के होने से सब काम निकल जाते हैं वार्तिक एकदेशी और परिभाषा सर्व देशी है। .. For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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