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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । पारिभाषिकः । (प्रधाय, प्रस्थाय ) त्यादि प्रयोगों में (क्ता ) प्रत्यय के स्थान में (ल्यप् ) आदेश होता है सो ल्यप होने से पहिले ( प्रधात्वा ) इस अवस्था में धा के स्थान में हि) और (स्था) को कारादे ग तथा (त्वा ) को ( ल्यप् ) भी प्राप्त है इस में हि आदि आदेश पर और अन्तरङ्ग हैं और ल्यप बहिरङ्ग है सो पर और अन्तरङ्ग मान के हि आदि आदेश कर लें तो प्रवाय, प्रस्थाय) आदि प्रयोग नहीं बन सके इसलिये यह परिभाषा है। ४८-अन्तरङ्गानपिविधीन् बहिरङ्गोल्यब्बाधते॥१०॥४॥३६॥ अन्तरङ्ग विधियों का भी बहिरङ्ग ल्यवादेश बाध करता है । इस से ( हि) आदि आदेशों को बाध के प्रथम ( ल्यप् ) हो गया फिर हि आदि को प्राप्ति नहीं तो ( प्रदाय, प्रधाय, प्रस्थाय) आदिप्रयोग सिद्ध हो गये और ( अदो जग्धयंति किति ) इस सूत्र में ल्यप का ग्रहण नहीं करते तो तकारादि प्रत्ययमात्र को अपेक्षा रखने वाला अदु धातु को ( जन्धि ) श्रादेश अन्तरङ्ग होने के कारण पूर्व पद कोअपेक्षा रखने वाले समासाश्रित बहिरङ्ग ल्यप आदेश से प्रथम हो जाता फिर ल्पप ग्रहण व्यर्थ होकर बस का ज्ञापक हुआ कि ( अन्तरङ्गविधियों को भौ बाध के पहले ल्यप होता है) फिर तकारादि कित् न होने से ( जग्धि) आदेश प्राप्त नहीं होता इसलिये ल्थप ग्रहण किया है । यही ख्यप ग्रहण इस परिभाषा के निकलने में ज्ञापक है । ४८॥ (व्याय, श्ययिथ ) इत्यादि प्रयोगों में पर होने से गुण वृद्धि और नित्य होने से हित्वप्राप्त है हित्व होने के पश्चात् (४४,५४५४थ) इस अवस्था में परत्व से गुण वृद्धि और अन्तरङ्ग होने से सवर्णदीर्घ एकादेश प्राप्त हे सो जो बलवान होने से अन्तरङ्गः सवर्ण दीर्घ एकादेश हो जावे तो ( इयाय, इयिथ ) आदि प्रयोग सिद्ध नहीं हो सके इसलिये यह परिभाषा है ।। ४९-वारणादाङ्गं बलीयो भवति ॥० ६।४।७८॥ वर्णकार्य से अङ्गकार्य बलवान् होता है। यहां वर्ण कार्य सवर्णदीर्घ एकादेश और अंगकार्य गुणवृद्धि हैं उस वर्ण कार्य से अंग कार्य को बलवान होनेसे गुणवृद्धि प्रथम हो कर (इयाय, इययिथ ) इत्यादि प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं ( अभ्यासस्यासवर्षे ) इस सूत्र में असवर्ण अच् के परे अभ्यास के वर्ण उवर्ण को ( इवङ, उवङ । आदेश को हैं सो जो गुण वृद्धि का बाधक एकादेश हो जाये तो अभ्यास से परे For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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