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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ - - - ॥ पारिभाषिकः । हो उन दोनों का ग्रहण होता है जैसे ( कूष्टकषोकामालानां चिततलभारिषु ) इस सूवमें (इष्टकचितं चिन्वौत ) यहां उसौष्टका शब्द को हस्व और (पक्केष्ट कचितं चिन्वीत ) यहां तइन्त को भी हव होता है ( उषीशतलेन, मुझेषीकतूलेन, मालभारिणी कन्या, उत्पलमालभारिणीकन्या) यहां भी इषौका और माला शब्द को दोनों प्रकार हस्व हुआ है । अङ्गाधिकार में ( सान्तमहतः संयोगस्य ) महान् यहां उसी महत् शब्द को उपधा को दीर्घ और ( परममहान ) यहां तदन्त को भी होता है इत्यादि अनेक उदाहरण महाभाष्य में लिखे हैं ॥ २८ ॥ (एकाचो हे प्रघमस्य ) यहां अनेकाच् धातु के प्रथम एकाच अवयव को हित्व होता है जैसे जनागार ) यहां जाभाग को हित्व हुआ है । जो केवल एकाच धातु है उसमें प्रथम एकाच अवयव कहां है जिस को द्वित्व हो जैसे ( पपाच, यान) दूत्यादि । तथा( एकाच शब्द में भी बहुनौहि समास है कि एक अच जिस मेंहो अर्थात् अन्य एक वा अधिक हल हो वह (एकाच) अवयव कहाता है। सो जहां केवल एकही अच धातु है जैसे (इयाय,भार ) यहाँ (द, ऋ) धातुओं को हित्व कैसे हो सके इसलिये यह परिभाषा है। ३०-व्यपदेशिवदेकस्मिन् ॥ ०१।१।२१॥ सत् निमित्त के होने से मुख्य जिस का व्यपदेश (व्यवहार हो वह व्यपदेशी जाता है और एक वह है जिस के व्यवहार का कोई सहायौ कारण नहो उस एक में व्यपदेशो के तुल्य कार्य होता है इस से ( एकाच) धातु (पपाव )आदि में हित्व और केवल एक ही अचधातु (व्याय, आर) आदि में भी हिर्वधन हो जाता है । कोकिएकाच और एकही अधातु की अपेक्षा में अनेकाच व्यपदेशोहै तहत कार्य सामने से सर्वत्र हित्व हो जाता है (आदेश प्रत्यययोः) इस सूत्र में प्रत्यय के अवयव शकार को मूर्खन्य कहा है सो ( करिष्यति) आदि में तो होहो जाता है। और ( स देवान् यक्षत् ) यहां यवत् क्रिया में केवल सिप विवरण का सकारमात्र प्रत्यय है उसको ( व्यपदेशिव द्वाव)मान के मूद्धन्य होता है । इत्यादि अनेक प्रयोकान हैं। लोक में भी यह व्यवहार होता है कि किसी के बहुत पुत्र हैं वहां तो ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ का व्यवहार बनता है और जिस का एक ही पुत्र हैतो. वहां उसी में ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ व्यवहार होता हैं ॥ ३०॥ तहित में जैसे नडादि, गर्गादि और शिवादि इत्यादि प्रातिपदिकों से अपत्य में अग आदि प्रत्यय कहे हैं सो उत्तमनड़ परमगग और महाशिव आदि प्रातिपदिकी से तदन्तविधि में क्यों नहीं होते इसलिये यह परिभाषा है। 1 For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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