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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ ॥ पारिभाषिकः ॥ प्रमाण से प्रत्ययान्त हो अर्थवान् होता है । और ( बहुच् ) प्रत्यय प्रातिपदिक से नहीं होता किन्तु सुबन्त से पूर्व बहुच् कहा है बहुच् प्रत्यय के सहित जो समुदाय है वहां प्रातिपदिकसंज्ञा होने को कुछ आवश्यकता नहीं है जैसे ( बहुपटवः ) यहां बहुच् के होने से पहिले ही अथवा पटु शब्द को प्रातिपदिकसंज्ञा तो सिद्ध हो है । फिर बहुच् प्रत्यय की विवचा में जिस विभक्ति और वचन का प्रयोग करना हो उस को रख के बहुच् प्रत्यय लाना चाहिये जैसे ( पटु, जस्) बस सुबन्त के पूर्व बहुच् आकर (बहुपटवः) प्रयोग सिह हो गया । इसी प्रकार अन्य प्रयोगों में जान लेना चाहिये और ( सर्वक: ) ( विश्वकः) इत्यादि में जो कच प्रत्यय मध्य में होता है उस के आगे परिभाषा लिखी है कि ( तदेकदेशभूतस्तद्यह) (सर्व) प्रातिपदिक के एक देश के मध्य में आया कच् उसी प्रातिपदिक के ग्रहण से ग्रहण किया जाता है ।। २७ ।। " (२३) व परिभाषा के होने में ये भी दोष हैं कि (अवतते नकुलस्थितं त एतत् ) यह क्त प्रत्ययान्तस्थित शब्द के साथ सप्तम्यन्त का समास कहा है सो गतिसंज्ञक अव शब्द के सहित सप्तम्यन्त और कर्त्तृकारकवाची नकुल शब्द के सहित तान्त कदन्त स्थित शब्द है इस कारण समास नहीं प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है । गतिकारक पूर्वस्यापि ग्रहणं भवति ॥ प्र० २८ - कद्ग्रहणे १ । ४ । १३ ॥ 'जहां कृत्प्रत्यय के ग्रहण से कार्य हो वहां उस कदन्त के पूर्व गतिसंज्ञक और कारक हो तो भी वह कार्य हो जाये । इस से गतिसंज्ञक अव और कारक नकुल के होने से भी समास हो जाता है, तथा सांकूटिनम् यहां ( बनुण् ) कृत्प्रत्ययान्त से ( अ ) तद्धित होता है सो जो ( कूटिन ) शब्द से करें तो उसी के आदि का वृद्धि होवे इस परिभाषा से गतिसंज्ञक ( सम् ) के सहितके (ण) के होने से ( सम् ) के सकार को वृद्धि होती है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ( गतिरनन्तरः ) इस सूत्र में (अनन्तर) ग्रहण इस परिभाषा के होने में ज्ञापक है ॥ ( येन विधिस्तदन्तस्य ) इस परिभाषासूत्र में सामान्य करके तदन्तविधिकही है विशेष विषय में उस का अपवादरूप वच्यमाण परिभाषा है ॥ २९ -- पदाङ्गाधिकारे तस्य तदन्तस्य च ॥ अ० १ । १ । ७२ ।। उत्तरपदाधिकार अर्थात् षष्ठाध्याय के तृतीयपाद में और अङ्गाधिकार में जिस को कार्यविधान हो वा जिस के आश्रय हो उस का और वह जिस के अन्त में For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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