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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १४ ॥ पारिभाषिकः ॥ २३ - प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स प्रत्ययो विहितस्तदादेस्तदन्तस्य च ग्रहणं भवति ॥ १। ४ । १३॥ जिस से जो प्रत्यय विधान किया हो वह जिस के आदि वा अन्त में हो उसी का ग्रहण हो और जो उस वाक्य में प्रत्यय विधि से पद पृथक हो उस का सामान्य कार्यों में ग्रहण न हो। इस से सनन्तको धातुसंज्ञा में देवदत्त का ग्रहण न हुआ ता विभक्ति का लुक् भो बचगया इसी प्रकार ( देवदन्ती गार्ग्यः ) यहां समुदाय को प्रातिपदिक संज्ञा हो तो मध्य विभक्तिका लुक् हो जावे तथा (ऋस्य राज्ञः पुरुषः) इस समुदाय को समाससंज्ञा हो तो मध्य विभक्तियों का लुक् प्राप्त हो इत्यादि इस परिभाषा के अनेक प्रयोजन हैं ॥ २३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ये विधिस्तदन्तस्य ) इस परिभाषा सूत्र से (दृषतीर्णा, परिषतीर्णा ) इत्यादि प्रयोगों में (रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः) इस सूत्र से दृषदु परिषद् दकारान्त शब्दों से परे धातु के तकारको अनिष्ट नकारादेश प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है | २४ - प्रत्ययग्रहणे चापञ्चम्याः ॥ अ० १ । १ । ७२ ।। जिन सूत्रों में प्रत्ययग्रहण से कार्य होते हैं वहां पञ्चम्यन्त से परे वह कार्य हो अर्थात् पंचयत से परे प्रत्ययग्रहण में तदन्तविधि न होवे इस से (परिषतोर्णा) आदि में धातु के तकार को नकार आदेश नहीं होता इत्यादि ॥ २४ ॥ कुमारीगौरितरा । इत्यादि प्रयोगों में तदन्त विधि मानें तो कुमारी शब्द को भी स्व प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है ॥ २५- उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे रूपग्रहणं द्रष्टव्यम् ॥ प्र० ६ । ३ । ५० ।। (अलुगुत्तरपदे) जो षष्ठाऽध्याय के तृतीय पाद में प्रत्ययनिमित्त कार्य है वहां स्वरूप का ग्रहण होना चाहिये अर्थात् तदन्तविधि न हो इस से (कुमारी गौरितरा ) यहां कुमारी शब्द को हख नहीं होता और रूपग्रहण से यह भी प्रयोजन है कि (हृदयस्य हृल्लेखयद एलासेषु) जो इस सूत्र में ( २३ ) वीं परिभाषा के अनुकूल (यत्) और (अण्) प्रत्यय जिस से विहित हों उस उत्तरपद के परे पूर्व को कार्य होजावे से इष्ट नहीं है। क्योंकि जो तदन्तविधि होता केवल हृदय शब्द से (हृद्यम्, हार्दम्) प्रयोग नहीं बनें इस में लेख ग्रहण ज्ञापक है कि अणन्त उत्तरपद का ग्रहण होतेा लेख शब्द ( अ ) प्रत्ययान्त पृथग् ग्रहण व्यर्थ है । इस से यह निश्चित हुआ कि इस उत्तरपदाधिकार के प्रत्ययाश्रितकार्यविधायक सूत्रों में तदन्तविधि नहीं होती ॥ २५ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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