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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मिश्रितमकरणम् ४. ( ५७ ) स्यातां वृथा काकपिकौ वसंते वृथा वराहश्च वृको नभस्ये ॥ स्युः श्रावणे वारणचातकाद्या अब्जादयः क्रौंचनिभा घनान्ते ॥ ४८ ॥ आर्त भीतरखजर्जरदीना भिन्नकंठलघुभैरवरूक्षाः ॥ निंदनीयनिनदाः शुभशब्दाः शांतपूर्णमुदितप्रकृतास्तु ।। ४९ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ टीका ॥ नः सर्पाद्या द्वीपी चित्रकस्तस्य शिशुर्वनेचर विशेषो वा प्लवंगः कपिः ॥ ४७ ॥ स्यातां वृथेति ॥ काकपिकौ वसंते ऋतौ वृथा स्यातां तत्र काकः प्रसिद्धः पिकः कोकिलः मत्तत्वेन शकुनानर्हत्वादित्यर्थः । तथा नमस्ये भाद्रपदे वराहः सुकरः वृकः वरगड इति लोके प्रसिद्ध: भिढहा इति प्राच्यां प्रसिद्धः वृथा स्यात् हेतुः पूर्वोक्त एव श्रावणे वारणचतिकाद्याः वृथा स्युः तत्र वारणो हस्ती चातको बप्पीहः आदिशब्दादन्येषामपि ग्रहणं घनान्ते शरदि अब्जादयः पदार्थाः क्रौंचनिभाः क्रौं सदृशाः पक्षिणः वृथा स्युः ॥ ४८ ॥ आर्तेति ॥ रुगार्ता भीतरवाः जर्जराः परिपक्कवयसः दोना निःसत्त्वाः भिन्नकंठाः घर्घरध्वनयः लघवः तुच्छाः भैरवाः रौद्राः रूक्षाः कांतिवर्जिताः निंदनीयनिनदाः निद्यशब्दाः प्रकृताः सुशकुनावलोकनप्रक्रियासु वर्ज्याः तथा शुभशब्दाः मनोहारिवाचः शांताः फलतृणाशनाः पूर्णाः मध्यव ॥ भाषा ॥ व्यर्य हैं ॥ ४७ ॥ स्पातां वृथेति ॥ काक कोकिल ये वसंतऋतु वृथा है और नूकर वृकनाम बरगडको है चा भिडहाकहें या कहूं ल्यारी कहे हैं ये भाद्रपद में वृथा हैं और हाथी चातकर्क आदिले श्रावण थाहैं और कमलकूं आदिले पदार्थ क्रौंचकी सदृश पक्षी ये शरदऋतुमें वृथा ॥ ४८ ॥ आतंति || रोगार्त होय, भयवान् शब्द जाको होय, वृद्ध होय, दीन होय, कंठ जाके घर्घरबोलते लघु होय, रौद्र होय, कांतिहीन होय, निंदित जाको शब्द होय ये शकुनके अवलोकन क्रियानमें वर्जित हैं तैसे ही मनोहर जिनकी वाणी हैं शांत शकुन हैं और फल तृणको आहार करें हैं पूर्ण मध्य अवस्था जिनकी, प्रसन्न मन जिनके ऐसे शकुन ग्रहण करने योग्य है ॥ ४९ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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