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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काकरुते दिक्चक्रप्रकरणम् सूर्योदयः। (२६७ ) विरुक्षसूक्ष्मास्यतनुर्विशंको यः कन्धरां दीर्वतरां बिभर्ति ।। स्थिराननः स्थैर्यसमेतबुद्धिः काकोंत्यजातिः स तु पंचमोऽत्र॥५॥ द्रोणाभिधः कृष्णवपुर्द्विजो यो ग्राह्यः स काकः खलु मुख्यवृत्त्या ॥ तस्मादृते श्यामगलो निरीक्ष्यः श्वेतस्तु नियोद्धतदर्शनोऽसौ ॥ ६ ॥ विप्रः स्फुटं जल्पति पृछयमानो न्यूनं ततः क्षत्रियजातिराह ॥ आख्याति वैश्यस्त्वधिवासनेन ब्रवीति शूद्रो बलिदानलोभात् ॥ ७॥ ॥ टीका॥ नात्यंत इति रटितैःशब्दितैः अत्यंतरूक्षो यः स वैश्यः तथा यः भस्मच्छविः भूरिककारशब्दः सः शूद्रः कृशांगश्चपलः अतिरूक्षः॥४॥ विरूक्षेति॥विरूक्षं सक्ष्ममा. स्यं तनुश्च यस्य स तथा विशंक इति शंकारहितः यः कंधरां दीर्वतरां विभर्ति स्थिरानन इति स्थिरमाननं मुखं यस्य स तथा स्थैर्यसमेतबुद्धिरिति स्थैर्यसमेता बुद्धिर्यस्य स तथास त्वत्र पंचमः काकोत्यजातिर्भवति ॥५॥ द्रोणाभिध इति ।। मुख्यवृत्त्या स काकः ग्राह्यः यो द्विजः द्रोणाभिधः कृष्णवपुः तस्माइते तदभावे श्यामगलो निरीक्ष्यः श्वेतस्तु निद्यः यतोऽसौ अद्भुतदर्शनः यदा जगति किञ्चिदद्भुतं भवति तदा श्वेतकाको दृग्गोचरी भवति ॥ ६ ॥ विप्र इति ॥ विप्रः पृछ्यमानः स्फुटं जल्पति क्षत्रियजातिः ततः न्यूनमाह वैश्यस्तु अधिवासनेन ॥ भाषा॥ और जो भस्मको सो वर्ण जाको बहुत ककार शब्द बोलतो होय कृश जाको अंग होम चपल और अतिरूखा होय वो काक शूद्र जाननो ॥ ४ ॥ विरुक्षेति ॥ विशेषकर रूखो और सूक्ष्म है मुखशरीर जाको और शंका रहितहोय और जो लंबीकंधरा धारणकरे स्थिर जाको मुख वा स्थिर जाको शब्द होय और स्थिर समेत जाकी बुद्धि होय वो काक पांचमो अंत्यज जाति जाननो ॥ ५ ॥ द्रोणाभिध इति ॥ जो पक्षी द्रोणनामकर श्याम वपु जाको होय वो मुख्य वृत्तीकरके काकग्रहण करनो. और ताको अभाव होय तो श्याम जाको कंठ होय सो देखनो योग्य है. श्वेत तो निंदित है. जब श्वेत काक नेत्रनसू देखेहे तब वाकू अद्भुत बतावे है. याते वो शकुनमें निंदितहै ॥ ६ ॥ विप्र इति ॥ विप्रसंज्ञक काकमूं पूछे तो सर्व योग्य कहै और क्षत्रियजाति काक वाते न्यून कहैहै. और वैश्य तो पूजन करेतूं यथार्थ कहैहैं. और शूद्रकाक बलिदानके लोभसू कहेहै ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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