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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिग्विभागवक्रम् । (११७) ॥ टीका॥ क्षणेन ॥ ११ ॥ पंचारके भयादौ भव्यः शुभे त्वभव्यः आवर्तयति तं कार्य सिद्धि नयति सिद्धिं तु क्षणाद्भुनक्ति॥१२॥ध्रुवः शांतःसदाशुभः अन्ये च शांतमपि प्रातः प्रथमपहरे मध्याह्ने चाभव्यं अन्यदा तु भव्यमित्याहुः ॥ध्रुवे च संदिग्धं ध्रुवं भवति निश्चितं तु संदिग्धयति ध्रुवा अधुवाः स्युः अस्थिराश्च ध्रुवाः स्युः स्वभावेन तु शुभामशुभां वा वार्ता स्थापयति ॥ १३ ॥ भरिहरिलाभं ददाति अनिवृत्तौ तु रिक्तं क रा७८५. ९०८७११७८७ स्वा.उ.फा.ऽश्विश्र, पु.फा.म.श.रो. ४.५३आ.नु.ज्य, मानि उ.षा. ५०1४ ४१५ अभि. ७७/वि. विष्य८० आग्नेयी. पू. भा. धनि. शानिरंमा/ भरि ईशान/रामात मल. . उदय विष्णुपदोदय/ मुले अग्नेय/नोर ३८आचातरीय उत्तर. ध्रुव दिग्विभाग चक्रमिदम्. निवासः समान अगस्त्या तोडातारा दक्षिण. / त अधः कवा य ऋषिअस्त खरकापचार लबक प्रमाणपत्र ताडास्ता WEB لادي Liezlikle kan अमूलस्ताराअ Legal ___List جدا ويتم नेगात्य. IS I PER Sab Tadayihi BIS - Pakih ॥ भाषा॥ ज्य कोणमें दीप्तशकुन शांत पुरुषके हीनकार्यकू पूर्ण करेगा ॥ ९ ॥ उत्साहति ॥ और जो आनंदरहित उद्विग्नचित्त जयाभिलाषी पुरुष हैं उनोकू वायुकोणके खरक शकुन फलदीयक होवेंगे ॥ १० ॥ चौर्येति । चोरी करनेवालेकू और परधनकी अभिलाषा करनेवाले... खरक शकुन नष्ट जानना ॥ ११ ॥ भूमिमिति ॥ कंठप्राण जिसके आये हैं परंतु खरक शकु नसे वो रोगी जीवंत होवेगा पावमें बेडी पी हो तोभी इस शकुनसे मुक्त होवेगा युद्धचिंतामें For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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