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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोदकीरते शांतप्रकरणं द्वितीयम् । अर्धे दिनस्य प्रहरेऽवशिष्टे यावनिशायाः प्रहरार्धमाद्यम् ॥ स्यात्पश्चिमाशा रविणात्र गूढा गम्योज्झिते धूमितभस्मवत्यौ ॥ ३८ ॥ प्रत्येकमेवं सततं सुमेरोः प्रदक्षिणाभ्यागमनेन सर्पन ॥ दिवारजन्योः प्रहराष्टकेन भुंक्ते दिशोऽष्टौ सविता क्रमेण ॥ ३९ ॥ ॥ टीका ॥ भवात्तु पुनः दक्षिणायनदिने कांद्यदिने शांकरी ईशानदिक् ज्वलति तथा उत्तरायणदिने मकराद्यदिने पावकी वहिदिगज्वलति । तत्पार्श्वयोर्भस्मध्मसहिते भवतः अयमर्थः यदा शांकरी ज्वलिता तदा उत्तरा भस्मिता पूर्वा धूमिता यदा पावको ज्वलिता तदा पूर्वा भस्मिता दक्षिणा धूमिता स्यात् ।। ३७ ॥ तदेव दर्शयति अर्धे इति ॥ गतार्थम् ।। ३८॥ प्रत्येकमिति ॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण प्रत्येकं दिग्विभागं प्रहरमात्रावस्थायित्वेन सविता सूर्यः क्रमेण परिपाट्या अष्टौ दिशः भुक्ते केन दिवारजन्योः प्रहराष्टकेन । किंकुर्वन् सर्पन गच्छन्मुमेरोः प्रदक्षिणाभ्यागमनेनेति प्रद. क्षिणया अभ्यागमनं पर्यटनं तेन सुमेरोः प्रदक्षिणां कुर्वनित्यर्थः ॥ ३९ ॥ ... ॥ भाषा॥ दक्षिणायन उत्तरायण काल होय है दक्षिणायन दिनमें ईशान दिशा ज्वलति कहे दग्धा, और उत्तरायण दिनमें अग्नि दिशा ज्वलति कहे दग्धा, इनके पसबाडेनकी दिशा भस्मा थमवती अर्थात् जब शांकरी जो ईशान दिशा ज्वलिता होय तब उत्तर दिशा भस्मिता, और पूर्व दिशा धूमिता, और जब अग्निदिशा ज्वलिता होय तब पूर्वदिशा भस्मिता और दक्षिण दिशा धूमिता, होय या प्रकार जाननो ॥ ३७ ॥ अर्द्ध इति ॥ दिनके प्रहरको अवाकी रहै और जबताई रात्रिके आद्यप्रहरको अर्द्ध तबताई पश्चिमादिशा सूर्यकरके व्याप्त होय और जो सूर्य जाकू छोडिआये और जा दिशाकू अगाडी जायगे ये दोनों दिशा भूमिता भस्मवती कहेंहैं ॥ ३८ ॥ प्रत्येकामिति ॥ एक एक दिशानमें एक एक प्रहर स्थित हेव कर सूर्य क्रमकरके सुमेरुपर्वतकं दक्षिणावर्त करत रात्रिदिनके आठ प्रहर For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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