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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयोग देखकर बादशाह अकबर ने 'खुशफहम' (तीक्ष्ण बुद्धि) की मानप्रद उपाधि प्रदान की थी, जिसकी पुष्टि उनके द्वारा रचित प्रत्येक ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति से होती है 54 इन प्रशस्तियों से यह भी ज्ञात होता है कि इन्होंने अपने प्रभाव के द्वारा शत्रुंजय तीर्थ पर लगे हुए कर को माफ कराया था तथा सिद्धाचल पर्वत पर मन्दिर-निर्माणकार्य में बाधक राजकीय निषेधाज्ञा को भी हटवाया था 55 सिद्धिचन्द्रगण अपने गुरु भानुचन्द्रगणि के अनेक साहित्यिक अनुष्ठानों में सहयोगी थे।" बाणभट्ट रचित कादम्बरी पर अपने गुरु के साथ लिखी गयी, इनकी टीका सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इस टीका के अध्ययन से इनके कोश विषयक ज्ञान का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। ये छह शास्त्रों के ज्ञाता तथा फारसी के अध्येता थे 17 सिद्धिचन्द्रगणि ने धातुमंजरी नामक ग्रन्थ की रचना वि.सं. 1650 (ई. सन् 1593) 58 और काव्यप्रकाश - खण्डन की रचना वि.सं. 1703 ( ई. सन् 1646) 59 में की थी तथा वासवदत्ता की टीका संवत् 1722 (ई. सन् 1665 ) में की थी । अतः इनका साहित्यिकउक्त तिथियों के मध्य मानना होगा। इतना लम्बा साहित्यिक काल इनके दीर्घजीवी होने का पुष्ट प्रमाण है । जैसा कि प्रारम्भ में कहा गया है कि सिद्धिचन्द्रगणि एक महान् टीकाकार और साहित्यकार थे । इन्हें व्याकरण - न्याय और साहित्य - शास्त्र का ठोस ज्ञान था, जिसकी पुष्टि उनके द्वारा रचे गये साहित्य से होती है। सूक्ति- रत्नाकर इनके गहन अध्ययन और पाण्डित्य का द्योतक है। उनके द्वारा विरचित अद्यावधि ज्ञात ग्रन्थों की संख्या 19 है, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं- कादम्बरी उत्तरार्द्ध टीका, शोभनस्तुति टीका, वृद्धप्रस्तावोक्तिरत्नाकर, भानुचन्द्र-चरित, भक्तामर स्तोत्र - वृत्ति, तर्कभाषा - टीका, जिनशतक - टीका, वासवदत्ता-टीका, काव्यप्रकाश-खण्डन, अनेकार्थोपसर्ग-वृत्ति, धातुमंजरी, आख्यातवादटीका, प्राकृतसुभाषित-संग्रह, सूक्तिरत्नाकर, मंगलवाद, सप्तस्मरणवृत्ति, लेखलिखनपद्धति और संक्षिप्त - कादम्बरी - कथानक 10 इसके अतिरिक्त काव्यप्रकाश - खण्डन में काव्यप्रकाश पर लिखी गयी गुरु नामक बृहद् टीका का भी उल्लेख मिलता है 11 काव्यप्रकाशखण्डन : आचार्य मम्मट विरचित काव्यप्रकाश का सीधा-सीधा अर्थ लगाना ही दुष्कर है, पुनः उसका खण्डन करना तो और भी अतिदुष्कर है, किन्तु आचार्य सिद्धिचन्द्रगणि ने काव्यप्रकाश का खण्डन कर अपनी प्रखर बुद्धि का मेरुदण्ड स्थापित किया है। इन्होंने काव्यप्रकाश के उन्हीं स्थलों का खण्डन किया है, जिनमें उनकी असहमति थी। प्रस्तुत रचना के कारणों पर प्रकाश डालते हुए मुनि जिनविजय ने लिखा है कि- 'महाकवि मम्मट ने काव्य-रचना विषयक जो विस्तृत विवेचन अपने विशद ग्रन्थ में किया है, उसमें से किसी लक्षण, किसी उदाहरण, किसी प्रतिपादन एवं किसी निरसन सम्बन्धी उल्लेख को सिद्धिचन्द्रगणि ने ठीक नहीं माना है और इसलिए उन्होंने अपने मन्तव्य को व्यक्त करने के लिए प्रस्तुत रचना का निर्माण किया 162 अतः इस आलंकारिक और अलंकारशास्त्र :: 617 For Private And Personal Use Only -
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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