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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में भी निपुण थे। मण्डन की विद्वत्सभा में कई विद्वान् एवं कुशल कवि स्थायी रूप से रहते थे, जिनका समस्त व्यय वह स्वयं वहन करते थे। मण्डन के द्वारा लिखे एवं लिखवाये गये ग्रन्थों की प्रतियों में प्रदत्त प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि मण्डन विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी तक जीवित थे। ___ मण्डन ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से निम्न ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं-(1) कादम्बरी दर्पण, (2) चम्पूमण्डन, (3) चन्द्रविजयप्रबन्ध, (4) अलंकारमण्डन, (5) काव्यमण्डन, (6) शृंगारमण्डन, (7) संगीतमण्डन, (8) उपसर्ग-मण्डन, (9) सारस्वतमण्डन और (10) कविकल्पद्रुम। अलंकारमण्डन : प्रस्तुत कृति मण्डन मन्त्री की अलंकार-विषयक रचना है। इसमें उन्होंने अलंकार-शास्त्रीय विषयों का समावेश किया है, जो नाम से ही स्पष्ट है। 'अलंकार-मण्डन' पाँच परिच्छेदों में विभाजित है। भावदेवसूरि आचार्य भावदेवसूरि प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे। उनका समय ईसा की चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और पन्द्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध प्रतीत होता है, क्योंकि इन्होंने पार्श्वनाथ-चरित की रचना वि.सं. 1412 में श्रीपत्तन नामक नगर में की थी, जिसका उल्लेख पार्श्वनाथ-चरित की प्रशस्ति में किया गया है। भावदेवसूरि के गुरु का नाम जिनदेवसूरि था। ये कालिकाचार्य सन्तानीय खंडिल्लगच्छ की परम्परा के आचार्य थे। आचार्य भावदेवसूरि ने अलंकार-विषयक 'काव्यालंकारसारसंग्रह' के अतिरिक्त और कितने तथा कौन-कौन से ग्रन्थों की रचना की है, यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि इन ग्रन्थों में परस्पर एक-दूसरे का कहीं भी उल्लेख नहीं है, किन्तु 'पार्श्वनाथ-चरित' जइदिणचरिया (यति-दिनचर्या)' और 'कालिकाचार्यकथा' नामक ग्रन्थों में कालिकाचार्य-सन्तानीय भावदेवसूरि का स्पष्ट नामोल्लेख किया गया है, अतः यह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त ग्रन्थों के रचयिता प्रस्तुत भावदेवसूरि ही होंगे। उपर्युक्त समय-निर्धारण उनके 'पार्श्वनाथ-चरित' के आधार पर किया गया है। काव्यालंकारसार-संग्रह : आचार्य भावदेवसूरि विरचित 'काव्यालंकारसार-संग्रह' नामक ग्रन्थ संक्षिप्त किन्तु महत्त्वपूर्ण है। इसमें आचार्य भावदेवसूरि ने प्राचीन ग्रन्थों से सारभूत तत्त्वों को ग्रहण कर संगृहीत किया है। यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है। पद्मसुन्दरगणि श्वेताम्बर जैन विद्वान् पं. पद्मसुन्दरगणि नागौरी तपागच्छ के प्रसिद्ध भट्टारक यति थे। इनके गुरु का नाम पद्ममेरु और प्रगुरु का नाम आनन्दमेरु था। पद्मसुन्दरगणि को मुगल बादशाह अकबर की सभा में बहु-सम्मान प्राप्त था। उनकी परम्परा के परवर्ती आलंकारिक और अलंकारशास्त्र :: 615 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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