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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होती हैं । इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता है । विषयों को ग्रहण करने से यह जीव इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष करता है । इस प्रकार संसारचक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्मबन्ध और कर्मबन्ध से राग-द्वेष रूप भाव होते रहते हैं । यह चक्र अभव्य-जीव की अपेक्षा से अनादि अनन्त है और भव्य - जीव की अपेक्षा से अनादि सान्त है; ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है 1 इससे स्पष्ट है कि संसारी जीव अनादिकाल से मूर्तिक जड़ कर्मों से बँधा हुआ है, इसलिए एक तरह से वह मूर्तिक ही हो रहा है, जैसा कि कहा है वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठणिच्चया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधा दो । ! 7।। - सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र, 'द्रव्य संग्रह ' अर्थात् वास्तव में जीव में पाँचों रूप, पाँचों रस, दोनों गन्ध, आठों स्पर्श नहीं रहते, इसलिए वह अमूर्तिक है, क्योंकि जैन दर्शन में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श गुण वाली वस्तु को ही मूर्तिक कहा है । किन्तु कर्मबन्ध के कारण व्यवहार में जीव मूर्तिक है । अतः ऐसे कथंचित् मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मद्रव्य का सम्बन्ध होता है । सारांश यह है कि कर्म के दो भेद हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म । जीव से सम्बद्ध कर्म पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहते हैं और द्रव्यकर्म के उदय में अज्ञान से होने वाले जीव के राग-द्वेष रूप भावों को भावकर्म कहते हैं। बिना भावकर्म के न तो द्रव्यकर्म होते हैं और न ही द्रव्यकर्मों के बिना भावकर्म होते हैं । 'पंचास्तिकाय संग्रह' में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं यह लोक सभी ओर से बादर, सूक्ष्म आदि विविध प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गलों से ठसाठस भरा है। इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है - कि कर्मयोग्य पुद्गल सर्वलोकव्यापी होने से जहाँ आत्मा है, वहाँ पहले से ही विद्यमान रहते हैं। संसारी आत्मा अपने स्वाभाविक चैतन्य स्वभाव को नहीं छोड़ते हुए ही अनादि बन्धन से बद्ध होने से मोह-राग-द्वेष भाव रूप परिणमन करता है, उन भावों को निमित्त करके पुद्गल स्वभाव से ही कर्मपने को प्राप्त होकर जीव के प्रदेशों में बद्ध हो जाते हैं । जैसे बिना किसी के किये ही पुद्गलों के इन्द्रधनुष, मेघादि रूप स्कन्ध बन जाते हैं, वैसे ही अपने योग्य जीव के परिणामों का निमित्त मिलते ही ज्ञानावरण आदि कर्म भी उत्पन्न हो जाते हैं । संसार में जो विविधता देखी जाती है - कोई गरीब है, कोई अमीर है, कोई सुखी जैसा है, कोई दुःखी है, कोई ज्ञानी है, कोई अज्ञानी है, यह विषमता न तो अहेतुक है और न ही इसका कारण केवल लोक व्यवस्था आदि है । इसमें कारण प्रत्येक जीव का अपना शुभाशुभ कर्म ही है । कर्म का फल जीव को कैसे प्राप्त होता है ?... क्या अन्य कोई नियन्ता या ईश्वर 280 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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