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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परलोक मानने वाले दार्शनिकों का मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कर्म अपना संस्कार छोड़ जाता है; क्योंकि हमारे प्रत्येक कर्म या प्रवृत्ति के मूल में राग और द्वेष रहते हैं। यद्यपि प्रवृत्ति या कर्म क्षणिक होता है, तथापि उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी रहता है। संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा अनादिकाल से चली आती है, इसी का नाम संसार है। किन्तु जैनदर्शन के मतानुसार कर्म का स्वरूप किसी अंश में इससे भिन्न है। जैनदर्शन में कर्म केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं है, किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है। जो रागीद्वेषी जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ मिल जाता है। यद्यपि यह पदार्थ भौतिक है तथापि जीव के कर्म अर्थात् क्रिया से आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बँधता है इसलिए उसे कर्म कहते हैं। वह आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है। विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि पुद्गल द्रव्य मुख्य रूप से पाँच वर्गणाओं (समान गुण वाले परमाणु पिण्ड को वर्गणा कहते हैं।) में विभक्त हैं –(1) आहारवर्गणा (2) भाषा वर्गणा (3) मनोवर्गणा (4) तैजस वर्गणा, और (5) कार्माणवर्गणा। जो इस संसार में सूक्ष्म स्कन्धों के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं। जीव के मन-वचन-काय के माध्यम से, राग-द्वेष रूप कार्यों के निमित्त से यह कार्माण वर्गणा ही कर्मरूप परिणमित हो जाती है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने 'प्रवचनसार' में लिखा है परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो। तो पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।। 187 ।। जब राग-द्वेष से युक्त आत्मा अच्छे प्रतीत शुभ और बुरे प्रतीत अशुभ कर्मों में लगता है, तब कर्म रूपी रज ज्ञानावरण आदि रूप से उसमें प्रवेश करता है। इस प्रकार कर्म एक मूर्त पदार्थ है, जो जीव के साथ बँध जाता है। 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में उस मूर्त कर्मबन्ध की परम्परा को इस प्रकार व्यक्त किया गया है जो खल संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी। 136 ॥ गदिमधिगदस्स देही देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विषयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ 137॥ जायदि जीवस्सेदं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा। 138 ।। अर्थात् जो जीव संसार में स्थित है, यानी जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों से नये कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ कर्म सिद्धान्त, गुणस्थान एवं लेश्या :: 279 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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