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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्चराध्ययन स्त्रम् ॥१२४८ - %AKKA सिद्धिवधूत्कंठितस्य तव हृदयं सुरसुंदयोंऽपि न हरंति, मनुष्यस्त्रीणां तद्धरणे का गणना ? एवं महाशोक| भरादिता विलपंति राजीमती सखीजनेन भणिता, अलंघनीयो भवितव्यतापरिणामः, ततो धीरत्वावलंयनं कुरु:भाषांतर अलमत्र विलपितेन, सत्वप्रधाना राजपुत्र्यो भवंतीति भणित्वा संस्थापिता.॥ अध्य०२१ | अर्थ:-विरक्तचित्त थइ पाछा वळता नेमिने जोइ राजीमती तो जाणे अकस्मात् वीजळी पडवाना आघातथी जेम तेम विह्वल | ॥१२४८० | थयेली पृथ्वीतल उपर मूर्छा खाइने पडी गइ, गभराइ गयेल सखीजनोए शीतळ जळ छांटी तालना पंखाबडे पवन नाखतां शुद्धिमा |आवी त्यारे भोंयपर पडीपडी विलाप करवा लागी. अहो ! आ अतिदुर्लभ भुवननाथ जेवामां मे अनुराग करीने मारो आत्मा हलको कर्यो. मारी सारा कुळमां उत्पत्ति थइ तेने धिकार; मारा आ रूपने, यौवनने तथा आ मारी कळाकुशळताने पण धिक्कार छे के जे हुँ नेमिनाथने पामीने त्यजाणी. हे नाथ ! मारुं जीवित जाय छे मारा अंगो त्रुटे छ; मारु हृदय फाटे छे, मारो आ आत्मा विर| हामिनी ज्वाळाथी आकुळ थाय छे, अने आहार खारो थयो, जळ, चंदन, चंद्रिका आदिक पदार्थो चिताना अग्नि समान थया. हे स्वामिन् ! मने केम त्यजो छो ? | आपे कई मारु विरुद्ध आचरण दीर्छ के सांभळ्थु ! आ ते शु मारूं जन्मान्तरमा करेलं अशुभ कर्म उखळ्यु ? हे स्वामिन् ! एकवार मारे सामे दृष्टि करो. आपन विषये प्रेमपरायण थयेली आ किंकरी प्रति अनादरवाळा मा थाओ अथवा सिद्धिवधूमा उत्कंठित थयेला तमाएं सुरसुंदरीओ पण हृदय हरी न शके तो पछी मनुष्य स्त्रीनी शी गणना? आम महाशोकथी| |पीडाइने विलाप करती राजीमतीने तेनी सखीओए कयु के-'भवितव्यतानो परिणाम कोइथी ओळंगी शकातो नथी माटे धीरज धरो. हवे विलाप बन्ध करो. तमारा जेवी राजपुत्रीओ तो सत्वगुणवाळी होय छे.' आवां वचन कहीने जरा शांत करी.॥ वर For Private and Personal Use Only
SR No.020858
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size7 MB
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