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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥८६६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंत सणास भत्ता । सीउण्हपि विविहं च दंसमसगं ॥ अव्वग्गमणे असंपहिछे । जे कसिणं अहियासए स भिक्खु । (पतं) निःसार एवा (सयणासणं) शयन, आसन विगेरेने ( भत्ता) भजीने (च) तथा (विविदं) विविध प्रकारना ( सी उन्हं शीत उष्ण [दंसमसमं] डांस, मच्छरादिना परिसहोने पामीने (अव्वग्गमणे) अव्यय के मन जेनुं [असंपहि] असंप्रहृष्ट [जो] जे साधु (कसिणं) ते समग्र [अहिआसर] सहन करे [स भिक्खु] ते साधु कहेबाव छे, ४ व्या० - पुनर्यः प्रांतमसारमप्रधानं शयनमासनं, उपलक्षणत्वाद्भोजनाच्छादनादिकं भजित्वा सेवयित्वा पुनः शीतोष्णं च पुनर्विविधं दंशमाशकं रुधिरपानकरं जंतुगणं सकलं प्राप्य अव्यग्रमना भवेत् स्थिरचित्तो भवेत् पुनर्यः सम्यक् शयनासन भोजनाच्छादनलाभात्, शीताद्युपद्रवरहितस्थानला भात्, तथा दंशमशकादिरहितस्थानला भादसंप्रहृष्टो भवति हर्षितो न भवति, समसुखदुःखो भवति, एतादृशः सन्नतत्सर्वमध्यास्ते स भिक्षुरित्युच्यते ॥१॥ फरीने जे प्रांत = असार अप्रधान शयन, आसन, तथा उपलक्षणथी भोजन, आच्छादान वगेरे भजीने=सेवीने तेमज शोत उष्ण तथा विविध डांस मच्छर वगेरे रुधिर पी जनारा सकळ जंतुगणने पामीने पण अव्यग्रमना=जेनुं मन व्यग्र = आकुळ न थाय एवो स्थिरचित्त होय तथा जे कोइ वखते सारं सूत्रानुं बिछानुं, आसन = बेसवानुं, उत्तम भोजन, आच्छादन ओढवानुं, मळे; शीत टाढ वगैरे उपद्रव रहित स्थान मळे तथा डांस मच्छरादि विनानुं स्थान मळे तो तेना लाभथी असंप्रहृष्ट=जराय हर्षित न थाय किंतु सुखदुःखमां समान भाववाळो होय; एवो होइने उपर कहेलां सर्वेने जे सहन करे ते भिक्षु कद्देवाय ४ नो सक्कियमिच्छई न पूयं । नोवि य बंदणगं कओ पसंसं ॥ से संजए सुब्बए तबस्सी । सहिए आयगवेसएस भिक्खु For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१५ ॥८६६ ॥
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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