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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१६ BE९००॥ जे निग्रंथ, प्रणीत-जेमांधीधी टपकतु होय पवा आहारनो आहारिता-उपयोग करनारोन थोय ते निग्रंथ होय 'ते केम एवी उत्तराध्य-36 शंका थाय त्यां आचार्य कहे छे निग्रंथ निश्चयें प्रणीत पान भोजननुं माहरण उपयोग करे तो ते ब्रह्मचारीना प्रह्मचर्यमा शंकादि दोषो भावे, ते कारणथी निग्रंथे निश्चये प्रणीतनो आहार न लेवो. ७ ॥१०॥ व्या-स निग्रंथो भवेत् , यः प्रणीतं गलघृतादिबिंदुकं, उपलक्षणत्वादन्यदपि सरसमत्यंतधातुवृद्धिकरं कामोदीपकमाहारंप्रत्याहान भवेत. यः सरसाहारकन्न भवेत् स निग्रंथः तदा शिष्यः पृच्छति. तत्कथमिति चेत्तदा आचार्य आह, हे शिष्य ! निग्रंथस्य साधोः खलु निश्चयेन प्रणीतं सरसमाहारं भुजानस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शं| कादयो दोषा उत्पते. तस्मादित्यादिदोषप्रादुर्भावानिग्रंथः प्रणीताहारकारी न भवेत् ॥ ७ ॥ इति सप्तमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान. इति सप्तमी वाटिका. ।। ७ ॥ अथाष्टमीं प्राह निग्रंथ ते थाय के जे प्रणीतम्घीना टीपां जेमांथी झरतां होय तेवा उपलक्षणथी बीजा पण सरस, अत्यंत धातु वृद्धि करे DE तेवा कामोद्दीपक आहारनो आहर्ता न थाय जे सरस आहार करनार होय ते निग्रंथ न होय शिष्य पूछे छे 'ते केम ?' त्यारे आचार्य कहे छे-हे शिष्य ! निग्रंथ जो सरस आहारवें भोजन करे तो निश्चये ते ब्रह्मचारीनो ब्रह्मचर्यमा शंकादिक दोषो उत्पन्न थाय छ, ते माटे एवा दोषोनो प्रादुर्भाव न थाय तदर्थ निग्रंथ पणिताहारकारी न थाय; एवी रीते सप्तम ब्रह्मचर्य समाधिस्थान क{ सप्तमी वाटिका हवे अष्टमी कहे छे. नो निग्गंथे अइमायाए पाणभोभणं आहारेत्ता हवइ, से निग्गंथे, तं कहमिति चेत् आयरियाह-निग्गंथस्स For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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