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तुलसी शब्द-कोश
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रई : भूकृ०स्त्री० । रचित, रंगी हुई । 'सब की सुमति राम-राग-रंग रई है ।' गी०
२.३४.३ रउरें : (दे० राउर) आपको (द्वारा, ने) । 'राम मातु मत जानब रउरें।' मा०
२.१८.२ रउरे : (दे० राउर) आपके । 'रउरे अंग जोगु जग को है।' मा० २.२८५.५ रउरेहि : आपको । 'भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।' मा० २.१६.२ रए : भूकृ००ब० । रंगे हुए+अनुरक्त । 'जे हरि रँग रए ।' मा० ३.४६ छं० रकतबीज : सं० पु० (सं० रक्तबीज)। एक असुर जिसके रक्त की बदे पृथ्वी पर
गिरें तो उतनी संख्या में रक्तबीज बन जाते थे। काली ने खप्पर में बूंद-बूंद रक्त ऊपर ही लेकर पी लिया, तब वह मारा जा सका। 'पाप'रकतबीज
जिमि बाढ़त जाहीं।' विन० १२८.३ रक्षक : वि० (सं.)। पालक, रखवाला । रा०प्र० ५.५.१ ।। रक्षण : सं०पू० (सं०) । रक्षा, पालन । विन० २५.४ रखवार, रा : वि.पु. (सं० रक्षपाल, रक्ष पालक>प्रा० रक्खवाल, रक्ख वालअ)।
रक्षक, बचाने वाला, पालक । 'को रखवार जग खरभरु परा ।' मा० १.८४/०;
रखवारी : सं०स्त्री० (सं० रक्षपालिका>प्रा० रक्ख वालिआ) । ब्याघात आदि से
बचाने की क्रिया । 'आपु रहे मख की रखवारी।' मा० १.२१०.२ रखवारे : रखवारा+ब० (प्रा० रक्ख वालय) । बचाने वाले । 'मुनि कोसिक मख
के रखवारे ।' मा० १.२२१.४ रखवारो : रखवारा+कए । एकमात्र रक्षक । ‘रख वारो जगदीस ।' दो० ४०५ रखिहि : आ० कवा०प्रए० (सं० रक्ष्यन्ताम् >प्रा० रक्खीअंतु>अ० रक्खीअहिं)।
रखे जायें । (१) सुरक्षित कर लिये जायं । 'ए रखिअहिं सखि आँखिन माहीं।' मा० २.१२१.५ (२) रोक लिये जायें । 'रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन ।'
मा० २.२८४.२ रखिहउँ : आ०भ० उए । रखूगा । 'रखिहउँ इहां बरष परवाना।' मा० १.१६६.५ रखिहहिं : आ० भ० प्रब० । रखेंगे। (१) रोकेंगे। ‘रखिहहिं भवन कि लेहहिं
साथा ।' मा० २.७०.५ (२) मान लेंगे। 'रुचि रखिहहिं राम कृपाल ।' मा०
१.२८ रगर : सं०स्त्री०। (१) संघर्षण । (२) टेक, आग्रह । 'जनम कोटि लगि रगर
हमारी।' मा० १.८१.५ रघु : (१) सं०० (सं०) । सूर्यवंशी राजा विशेष दशरथ के पितामह । मा०
१.१८७.५ (२) रघुगोत्र-जैसे, रघुनायक, रघुनंद आदि । 'रघुकुल' । मा०
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