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________________ तत्त्वार्थसूत्रे तथाच-परमाणुरूपपुद्गलानां इत्यादि प्रदेशिकपुद्गलस्कन्धानां जीवानां च देशान्तरप्राप्तिलक्षणागतिः त्रिधा वर्तते अनुश्रेणिरूपा । तत्र परमाणुपुद्गलानां द्यादिप्रदेशिकपुद्गलस्कन्धानां चाऽनुश्रेणि रूपागतिर्भवति । जीवानामपि तथैव अनुश्रेणिरूपैव । तत्र-श्रेणिस्तावद् लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यकचक्रमसन्निविष्टानामाकाशप्रदेशानां पंक्तिःस्वशरीरावगाहप्रमाणाबोध्या । तथाविधश्रेणिमनुगता-अनुश्रणिः, श्रेणेरानुपायाजीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवति । साऽनुश्रेणिर्गतिरुच्यते ॥ ____तत्राऽनुश्रेणिरूपागतिः पुद्गलानां जीवानां च भवति, जीवानामेव स्वभावतो भवति, तत्रापिजीवानां संसारिणां मरणकाले-भवान्तरसंक्रमे मुक्तानां चोर्ध्वगमनकाले अनुश्रेण्यैव गतिर्भवति पुगलानामपिपरप्रयोगनिरपेक्षाणां स्वाभाविकीगतिरनुश्रेणिरूपैव भवति तथाच-परप्रयोगापेक्षयापुद्गलानामनुश्रेणिरूपा-गतिर्भवति, परप्रयोगानपेक्षया तु अनुश्रेणिरूपैव गतिर्भवति पुद्गलानामिति वस्तुस्थितिः ॥२३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्वं जीवानां स्वरूपं निरूपितम् सम्प्रति-येषां जीवानां भवान्तर--- प्रापिणीगतिर्भबति सा किं यथा कथञ्चिद् भवति ? आहोस्विदस्ति तत्र कश्चिन्नियमः इति शङ्कायां प्रथमं गतिं प्ररूपयति-"पोग्गलजीवगई दुविहा अणुसेढोय" इति । लिए पहले गति का स्वरूप कहते हैं --पुद्गलो और जीवों की गति अर्थात् एक जगह से दूसरी जगह पहुँच दो प्रकार की होती है--अनुश्रेणि और विश्रेणि । परमाणुप्रद्गलों की द्विप्रदेशी आदि स्कंधों की ओर जीवों की देशान्तरप्राप्ति रुप गति एक प्रकार की होती है-अनुश्रेणिरूप परमाणुपुद्गलों की साथ द्विप्रदेशी आदि स्कंधों की गति अणुश्रेयि ही होती है। ___जीवों की भी अनुश्रेणि ही होती है। लोक के मध्यभाग से लगाकर ऊपर नीचे और तिर्छ अनुक्रम से रहे हुए आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणि कहते हैं । इस श्रेणि के अनुसार जीवों और पुद्गलों की जो गति होती है वह अनुश्रेणि गति कहलाती है। इनमें से अनुश्रेणि गति पुद्गलों और जीवों की होती है । पुद्गलों की इसमें भी जीव जब मरण करके दूसरे भव में जाता है और मुक्त जीव जब ऊर्ध्वगमन करते हैं तब उनकी अनुश्रेणिगति होती है । परप्रयोग के बिना पुद्गलों की भी स्वभाविक गति श्रेणी के अनुसार ही होती है; परप्रयोग से अर्थात् बाहरी दबाव से प्रद्गलों की अनुश्रेणि गति होती है । यह वस्तुस्थिति है ॥२३॥ - तत्वार्थनियुक्ति—जीवों के स्वरूप का निरूपण पहले किया जा चुका है, अब जीवों की भवान्तर प्रापिणी (परभव में पहुँचाने वाली) जो गति होती है, वह चाहे जैसी हो जाती है अथवा उसका कोई नियम है ? इस प्रकार को शंका होने पर पहले गति का निरूपण करते हैं।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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