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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ पुद्गलजीवयोर्गतिनिरूपणम् ८३ मूलसूत्रम् ---"पोग्गलजीवगईदुविहा, अणुसेढीय-विसेढीय" ॥२३॥ छाया-- 'पुद्गलजोवगतिद्विविधा, अनुश्रेणिश्च-विश्रेणी च ।२३। तत्त्वार्थदीपिका :--पूर्व तावद् जीवानां स्वरूपं निरूपितम् सम्प्रति तत्प्रस्तावाद् येषां जीवानां भवान्तरप्रापिकागतिर्भवति, सा गतिः किं तेषां यथाकथञ्चित् भवति ? उताहो कश्चित् तत्र प्रतिनियमो वर्तते ? इति जिज्ञासायां प्रथमं तावद् गतिस्वरूपं प्ररूपयितुमाह-"पोग्गलजीवगई दुविहा, अणुसेढीय-विसेढीय' इति पुगलजीवगतिः-पुद्गलानां जीवानां च गतिः देशान्तरप्राप्तिर्द्विविधा वर्तते अनुश्रेणिश्च विश्रेणिश्च ।। हैं- अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । आवश्यक आदि के भेट से अंगबाह्य अनेक प्रकार का है। वह मन नोइन्द्रिय कहलाता हैं, क्योंकि रूप आदि के ग्रहण में वह स्वतंत्र नहीं है, अपूर्ण है, और इन्द्रियों का कार्य नहीं करता है। जैसे चक्षु अप्राज्ञाकारि है उसी प्रकार मन भी अप्राज्ञाकारि हैं क्योंकि जल और अग्नि का चिन्तन करते समय न उसका अनुग्रह (उपकार) होता है और न उपद्यात होता है । मन दो प्रकार का है द्रव्यमन और भावमन द्रव्यमन अपने शरीर के बराबर है और भावमन रहता है । भावमन द्रव्यमन का अवलम्बन करके इन्द्रियपरिणाम का मनन करता है वह द्रव्यमन का ही अनुसरण करता है। इस प्रकार श्रोत्र की प्रणाली द्वारा ग्रहण किये हुए शब्दों के अर्थ का विचार करने वाले अतीइन्द्रिय किये रुप मन का विषय श्रुतज्ञान है । प्रयोगविशेष से संस्कृत उस श्रत को जावर्ण पद, वाक्य, प्रकरण, अध्यायन आदि भेद वाला है, मन के सिवाय अन्य कोई इन्द्रिय जानने हैं समर्थ नहीं हैं। इस कारण आत्मा की परिणति विशेष रूप श्रुतज्ञान ही मनका विषय है । शब्द स्वरुप श्रुत मन का विषय नहीं हो सकता। ___शब्दात्मक श्रुत प्रतिद्यात और अभिमल से युक्त होने के कारण तथा मूर्त्तिक होने के कारण श्रोत्र के द्वारा ही ग्राह्य होता है; मन के द्वारा ग्रमह्य नहीं होता इस प्रकार मन इन्द्रिय नहीं हो सकता है क्योंकि उसमें इन्द्रिय का पूर्वोक्त लक्षण घटित नहीं होता । इसी कारण वह नोइन्द्रिय कहलाता है ॥२२॥ सूत्र---"पोग्गल जीवगई दुविहा इत्यादि ॥२३ मूलसूत्रार्थ-पुद्गल और जीव की गति दो प्रकार के होती है—अनुश्रेणिगति और विश्रेणिगति ॥२३॥ तत्त्वार्थदिपिका---पहले जीवों का स्वरुप प्रतिपादन किया गया है इसी प्रसंग को लेकर यह बतलाते हैं कि जीवों की भवान्तर को प्राप्त कराने वाली जो गति होती है । वह अनियत अर्थात् चाहे जैसी होती है अथवा उसमें कोई नियम है ? इस जिज्ञासा या समधान करने के
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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