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________________ vvv दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ पुद्गलजीवयोर्गतिनिरूपणम् ८१ तच्च मनः--चक्षुर्वदप्राप्यकारि वर्तते वह्नयुदकादिपरिचिन्तनकाले दाहशैत्यादिरूपोपधातानुग्रहाभावात् तत् खलु मनो द्विविधम् , द्रव्यभावभेदात् , तत्र द्रव्यमनः स्वशरीरपरिमाणम् , भावमनःपुनरात्मा वर्तते स चात्मा-भाव-मनोरूपस्त्वक्पर्यन्तदेशव्यापी भवति । द्रव्यमनसोऽवलम्बनद्वारेणैव भावमन इन्द्रियपरिणामं मनुते, तस्मात्तस्यतव्यापारानुविधायित्वात् अनिन्द्रियस्य मनसः श्रोत्रप्रणालिकया गृहीतशब्दवाच्यविचारशीलस्य श्रुतज्ञानमर्थो विषय इति भावः । तच्च श्रुतज्ञानं प्रयोगविशेष संस्कारज्ञानसाध्यं वर्ण-पद- वाक्य-प्रकरणाध्यायादिज्ञानरूपं मनो विना न कारणान्तरं परिच्छेत्तुं समर्थं भवेदिति तदर्थ मनोऽवश्यमभ्युपेतव्यम् इति भावः ।२२। तत्त्वार्थनियुक्ति :-पूर्वसूत्रे-स्पर्शादीन्द्रियाणां स्पर्शादयो विषयाः प्रतिपादिताः सम्प्रतिमनसो निरूपणपूर्वकं तद् विषयं प्ररूपयति--"णो इंदियं मणे ताविसए सुअं" नो इन्द्रियम्अनिन्द्रियं तावद् मन उच्यते । तस्य-अनिन्द्रियरूपमनसो विषयः श्रुतम् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यं द्रव्यश्रुतानुसारिप्रायो निजार्थोपसङ्गतमात्मनः परिणतिप्रसादात्मकं तत्त्वार्थपरिच्छेदस्वरूपं भावश्रुतज्ञानं व्यपदिश्यते । यद्वाऽर्थविग्रहसभयानन्तरं मतिज्ञानमेव श्रुतज्ञानरूपं सम्पद्यते, तच्च न सर्वेषामिन्द्रियाणामर्थविग्रहानन्तरं भवति अपितु-मनोऽर्थविग्रहानन्तरमेव मतिज्ञानं श्रुतज्ञानरूपं सम्पद्यते विशेषतः पुनः श्रुतग्रन्थानुसारेण श्रुतज्ञानं भवति । तच्च-मनसोऽनिन्द्रियस्यार्थरूपं श्रुतज्ञानं द्विविधं भवति ॥ श्रुतज्ञान है । यहाँ श्रुतज्ञान शब्द से श्रुतज्ञान का विषय समझना चाहिए अर्थात् श्रुतज्ञान का जो विषय है वही मन का विषय है । जिस आत्मा को श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है । वह श्रुतज्ञान के विषय में मन की सहायता से ही प्रवृत्ति करता है । तत्पर्य यह है कि श्रुतज्ञान का जो विषय है, वह मन का स्वतंत्र विषय है। इस प्रकरण में श्रुत शब्द का अर्थ भावश्रुतज्ञान समझना चाहिए । यह मावश्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपनाम से उत्पन्न होता है, प्रव्यश्रुत का अनुसरण करता है और आत्मा का ही एक विशिष्ट परिणमन है । अथवा अर्थावग्रह के पश्चात् मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। किन्तु सभी इन्द्रियों से होने वाले अर्थावग्रह के अन्तर मतिज्ञान श्रुतिज्ञान रूप नहीं परिणत होना वान् कन से होने वाले अथावग्रह के पश्चात् ही श्रुतज्ञान रूप होता है । खास तौर से श्रुतज्ञान श्रुतशास्त्र के अनुसार होता है। मन का विषय जो श्रुतज्ञान है, वह दो प्रकार का है अङ्गबाह्य और अंगप्रविष्ट । आवश्यक आदि अंगबास्थश्रुतज्ञान अनेक प्रकार का है । अंगप्रविष्ट बारह प्रकार का है आचाएंग आदि । चक्षु के समान मन भी अप्राज्ञाकारी है, क्योंकि जब मन से अग्नि का चिन्तन किया जाता है तब मन में दाह नहीं होता और जब जल का चिन्तन किया जाता है तब वह शीत
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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