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________________ तत्त्वार्थसूत्रे _अपितु-तस्य नो इन्द्रियत्वमेव युक्तमित्याशयेनाऽऽह “णो इंदियमणे ताविसएसुअं इति मनस्तावद् नोइन्द्रियम् अनिन्द्रियमुच्यते, तस्य शब्दादिनियतविषयाभावात् । किन्तु तदपि उपयोगस्योपकार्येव भवति श्रोत्रादिवत् । तेन विना श्रोत्रादीन्द्रियाणां शब्दादिविषयेषु स्वप्रयोजनवृत्त्यभावात् । तथाच-सर्वेषामिन्द्रियाणामुपयोगस्य च सहकारित्वं मनसः सिध्यति परन्तु-न केवलं तेषां सहकारित्वमेव मनसो वर्तते अपितु-श्रुतज्ञानस्य स्वातन्त्र्येण विषयो वर्तते इत्यभिप्रायेणाह—'तद् विषयः श्रुतम्' इति । तस्याऽनिन्द्रियस्य मनसोविषयः श्रुतम् श्रुतज्ञानं वर्तते, श्रुतज्ञानविषयोऽर्थो वा तस्य विषयः प्राप्तश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमस्यात्मनः श्रुतस्यार्थेऽनिन्द्रियमनोऽवलम्बनज्ञानप्रवृत्तिसत्वात् । ___ तथा च-श्रुतज्ञानमनिन्द्रियस्य मनसोऽर्थःप्रयोजनं वर्तते अनिन्द्रियस्य स्वातत्र्यसाध्यं श्रुतज्ञानं प्रयोजनमस्तीति फलितम् । एवञ्च–प्रकृते श्रुतशब्देन श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यद्रव्यश्रुतानुसारि प्रायशो निजार्थोपसंगतमात्मनः परिणति प्रसादलक्षणं तत्त्वार्थपरिच्छेदस्वरूपं भावश्रुतज्ञानमुच्यते ।। अथवा—अर्थावग्रहानन्तरं मतिज्ञानमेव श्रुतज्ञानरूपं सम्पद्यते, । तच्च --न सर्वेषामिन्द्रियाणामर्थावग्रहाऽनन्तरं भवति, अपितु मनसोऽर्थावग्रहानन्तरमेव मतिज्ञानं श्रुतज्ञानरूपं सम्पद्यते । विशेषतस्तु-श्रुतग्रन्थानुसारेण श्रुतज्ञानं भवति तच्च-मनसोऽनिन्द्रियस्य विषयरूपं श्रुतज्ञानं द्विप्रकारकं वर्तते-अङ्गबाह्यम् अङ्गान्तरगतञ्च तत्राऽऽवश्यकादिकमङ्गबाह्यमनेकविधं बोध्यम् । अङ्गान्तरगतञ्च द्वादशविधम् । आचाराङ्गादिद्वादशभेदात् । सूत्र-“णोइंदिय मणे ताविसए सुअं ॥२२॥ मूलसूत्रार्थ-मन तो इन्द्रिय है और उसका श्रुत है ॥२२॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले इन्द्रियों का और उनके विषयों का निरूपना किया गया है। श्रोच आदि उपयोग के कारण होने से इन्द्रिय हैं और शब्द आदि उनके विषय नियत हैं, अर्थात् श्रोच शब्द को ही जानना है, चक्षु रुप को ही ग्रहण करती है, इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय का अपना-अपना विषय नियत है। किन्तु मन का विषय नियत नहीं हैं। वह शब्द, रुप, रस आदि समस्त विषयों में प्रवृत्त हो सकता है। इस कारण उसे इन्द्रिय नहीं माना गया है। उसे नोइन्द्रिय कहना ही उपयुक्त है । इस अभिप्राय को लेकर कहा है मन नोइन्द्रि कहलाता है, क्योंकि उसका विषय शब्दादि नियत नहीं है। फिर भी वह श्रोत्र आदि की तरह उपयोग में नियित्त तो होता ही है। उसके विना श्रोत्र आदि इन्द्रियों की शब्द आदि विषयों में ९ स्वप्रयोजनभूत प्रवृत्ति नहीं होती। इस प्रकार मन सभी इन्द्रियों का और साथ ही उपयोग का भी सहायक सिद्ध होता है। मगर मन केवल इन्द्रियों का सहायक मात्र नहीं है, अपितु स्वतंत्र रुप से श्रुत ज्ञान के विषय को भी जानता है । अतएव सूत्र में कहा है-मन का विषय श्रुत है। अर्थात् मन का विषय
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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