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________________ दीपिकानियुक्तश्च अ. १ त्रसजीवनिरूपणम् ७५ __एवं विविधविशेषनिरपेक्षा यथोत्पन्नवर्तिनी औदारिकप्रायोग्यद्रव्यवर्गणामूलकारणव्यवस्थितगुणनिवर्त्तना व्यपदिश्यते । तस्मिश्चनिवृत्तिरूपेन्द्रियेसत्यपिकृपाणघारस्थानीये प्रागुक्तमुपकरणेन्द्रिय पश्चाभागरूपमवश्यमपेक्षणीयम् । तच्च स्वविषयग्रहणशक्तियुक्तं छेदनसमर्थखड्गधारेव तच्छक्तिरूपमिन्द्रियान्तरं स्वीकर्तव्यम् ।. अन्यथा-निर्वृत्तौ सत्यामपि शक्त्युपघातैर्विषयं न गृह्णाति तस्मात्–निर्वृत्तिरूपे श्रवणादिसंज्ञके द्रव्येन्द्रिये । तद्भावादात्मनोऽनुपघाताऽनुग्रहाभ्यां यदुपकारकं भवति तदुपकरणेन्द्रियं व्यपदिश्यते, तदपि द्विविधम् बहिर्वति--अन्तर्वति च, निवृत्तिरूपद्रव्येन्द्रियापेक्षयाऽस्यापि द्वैविध्यमुच्यते । यत्र-निर्वृत्तिद्रव्येन्द्रियं भवति तत्रोपकरणेन्द्रियमपि न तस्य भिन्नदेशवर्ति भवति, तस्याः खलु-स्वविषयग्रहणशक्तेर्निवृत्तिरूपद्रव्येन्द्रियमध्यवर्तित्वात्। तत्र-इन्द्रियसंस्थानानि, आह-नानाविध संस्थानं स्पर्शेन्द्रिम्-१ प्रदीर्घत्र्यस्र संस्थित क्षुरप्रकारं-रसनेन्द्रियम्-२ अतिमुक्तकपुष्पदलचन्द्रकाकारं किञ्चित् सकेसरवृत्ताकारमध्यविनतघाणेन्दियम्-३ किञ्चित् समुन्नतमध्यपरिमण्डलाकारं धान्यमसूरसदृशं-चक्षुरिन्द्रियम्-४ कदम्बपुष्पकाकारं श्रोत्रेन्द्रियं भवतीति भावः-५ । कानों का वेधन तथा उनमें लम्बाई उत्पन्न करना, चक्षु का अंजन द्वारा और घ्राण का नस्य द्वारा उपकार होना, औषध प्रदान करके जिह्वा की जड़ता दूर करना और नाना प्रकार के चूर्ण, पटवात तथा गंघद्रव्यों के घिसने से स्पर्शनेन्द्रिय का विमल होना, यह सब उत्तरगुण निर्वर्तना है। इसी प्रकार विविध विशेषों से निरपेक्ष, जैसी उत्पन्न हुई हो वैसी ही रही हुई, औदारिक शरीर के योग्य द्रव्यवर्गणा मूलकारणव्यवस्थित गुणनिर्वर्तना कहलाती है । तलवार की धार के समान निवृत्ति रूप द्रव्येन्द्रिय के होने पर भी, उसके पिछले भाग के समान उपकरणेन्द्रिय की अपेक्षा रहती ही है। अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति से युक्त छेदन करने में समर्थ तलवार की धार के समान शक्ति रूप अलग इन्द्रिय को स्वीकार करना चाहिए । अन्यथा निवृत्ति के होने पर भी शक्ति का उपघात होने से इन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण नहीं करती है । अतएव निवृत्ति रूप श्रवणादि संज्ञा वाले द्रव्येन्द्रिय की विद्यमानता में जो अनुपघात और अनुग्रह के द्वारा उपकारक होता है, उसे उपकरणेन्द्रिय कहते हैं। उपकरणेन्द्रिय के भी दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । जहाँ निवृत्ति द्रव्येन्द्रिय होती है, वहाँ उपकरणेन्द्रिय होती है । वह उससे भिन्न देश में नहीं रहती। . . __ अब इन्द्रियों के आकार कहते हैं-स्पर्शनेन्द्रिय का आकार कोई एक नियत नहीं है-उसके आकार विविध प्रकार के होते हैं । रचनेन्द्रिय का आकार लम्बे और त्रिकोण छरे के समान होता है। अतिमुक्तक के पुष्प-दल-चन्द्रक के आकार जैसी, कुछ-कुछ केसर सहित वृता
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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