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________________ तत्त्वार्थसूचे तत्र-निवृत्तीन्द्रियं तावत्-अङ्गोपाङ्गनामकर्मनिवर्तितमुपयोगरूपभावेन्द्रियस्य विवरं[ छिदं] कर्मविशेषसंस्कृतशरीरप्रदेशरूपम्, निर्माणनामकर्माङ्गोपाङ्गकर्मप्रत्ययं मूलगुणनिवर्तनरूपमुच्यते उपकरणेन्द्रियं द्विप्रकारकं भवति-बाह्यमाभ्यन्तरञ्च, तदुभयमपि निर्वर्तितस्य श्रोत्रादिसंज्ञकस्य द्रव्येन्द्रियस्याऽनुपधाताऽनुग्रहाभ्यामुपकारी भवति । अयं भावः--निर्माणनामकर्मान्तर्वर्तीवर्द्धकिवत् कर्णशष्कुल्यायवयवसंनिवेशविशेषरचनानिपुणः एवम्-औदारिक-वक्रियाऽऽहारकशरीरत्रयाङ्गोपाङ्गनामकर्म विशेषश्च यदुदयादङ्गान्युपाङ्गानि च शिरोङ्गुल्यादीनि निष्पद्यन्ते, एतत् कर्मद्वयं निर्वृत्ति-उपकरणरूपद्रव्येन्द्रियद्वयनिर्माणाय यतते । अनेन चाङ्गोपाङ्गनाम्नाऽतिप्रविशिष्टेन कर्मविशेषेण उपयोगरूपभावेन्द्रियस्याऽवधानप्रदानमार्गरूपाणि विवराणि जन्यन्ते तान्येव कर्णशष्कुल्यादिरूपाणि बहिरुपलभ्यमानाकाराणि विवराणि एकानिवृत्तिरुच्यते अन्यापुनरभ्यन्तरनिर्वृत्तिर्भवति ॥ ___ यद्वा-अङ्गोपाङ्गनामकर्मनिर्माणकर्मविशेषाभ्यां विशिष्टावयवरचनया निष्पादिता औदारिकादि त्रयाणां शरीराणां प्रतिविशिष्टाः कर्णशष्कुल्यादयः प्रदेशाः निर्माणनामाङ्गोपाङ्गनिमित्ता उत्तरगुणनिवर्त्तनापेक्षयामूलगुणनिर्वर्तनारूपा निवृत्तिः संजायते । उत्तरगुणनिर्वर्तनापुनः श्रोत्रयोर्वेधः प्रलम्बतापादनं चक्षुर्घाणयोरञ्जननस्याभ्यां-उपकारः । औषधप्रदानाज्जिह्वाया जडतापनयनम् , स्पर्शस्य च नानाचूर्ण–पटवास-गन्धद्रव्यप्रघर्षात् विमलत्वकरणं भवति ।। निर्वृत्ति-इन्द्रिय अंगोपांगतामकर्म से उत्पन्न होती है, उपयोग रूप भावेन्द्रिय का छिद्र है, निर्माणनामकर्म और अंगोपांग नामकर्म के कारण उत्पन्न होती वह मूलगुणनिर्वर्तनारूप है। उपकरणेन्द्रिय दो प्रकार की है-बाह्य और आभ्यन्तर । श्रोत्रादि द्रव्येन्द्रियों को उपघात से बचाने और उनका अनुग्रह करने में उपकरणेन्द्रिय सहायक होती है । ___ तात्पर्य यह है निर्माण नामक नामकर्म भीतर रहे हुए सुतार के समान है जो कर्णशष्कुली आदि अययवों की आकृति बनाने में कुशल है । इसी प्रकार औदारिक, वैक्रिय तथा आहारक इन तीन शरीरों का अंगोपांग नामकर्म भी अवयवों की रचना करना है। इसके उदर से शिर आदि अंगों और अंगुली आदि उपांगों की रचना होती है। ये दोनों कर्म निवृत्ति उपकरण रूप दोनों द्रव्येन्द्रियों का निर्माण करने के लिए यत्न करते हैं। __अंगोपांग नामक अत्यन्त विशिष्ट जो कर्म है वह उपयोगरूप भावेन्द्रिय के, अवधान देने के मार्ग रूप छिद्रों को उत्पन्न करता है। वही कर्णशष्कुली आदि रूप छिद्र जो रूप बाहर से मालूम पड़ते हैं, उन्हें एक निवृत्ति कहते हैं, दूसरी आभ्यन्तर निवृत्ति कहलाती है । ___अथवा-अंगोपांग नामकर्म और निर्माणनामकर्म के द्वार विशिष्ट प्रकार की अवयव रचना से रचित, औदारिक आदि तीन शरीरों के कर्णशष्कुली आदि प्रदेश, निर्माणनामकर्म और अंगोपांग नामकर्म निमित्तक, उत्तर गुणनिवर्त्तना की अपेक्षा मूलगुणनिवर्त्तना रूप निवृत्ति उत्पन्न होती है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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