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________________ ६७६ MAA सत्वार्थसूत्रे - तत्त्वार्थनियुक्तिः–पूर्वसूत्रे कर्मभूमिजानां म्लेच्छानां प्ररूपणं कृतम्, तत्र-कर्मभूमि प्ररूपयितुमाह-"कम्मभूमी भरह-एरवय-विदेहा-ता इयरा अकम्मभूमी-" इति कर्मभूमयःकर्मणो निर्वाणाय-क्षपणाय सिद्धिभूमयः, सकलकर्माऽग्ने विध्यापनाय सिद्धिप्राप्त्यै भूमयः कर्मभूमय स्तावद् भरतैरवतविदेहाः सन्ति । तत्र-जम्बूद्वीपे एकैके भरतैरवतविदेहाः, धातकीखण्डे च-द्वौ द्वौ, पुष्करद्वीपार्धे चाऽपि द्वौ द्वौ-इति पञ्च भरतवर्षाः पञ्च-ऐरवताः पञ्च महाविदेहाश्च पञ्चदशक्षेत्राणि कर्मभूमयः सन्ति । तदितरे- तेभ्यो भरतैरवतविदेहेभ्यो ऽतिरिक्ताः ये हैमवतहरिवर्षरम्यकवर्षहैरण्यवतास्ते प्रत्येकं पञ्च पञ्च भेदात् विंशतिर्वर्षाः पञ्चदेवकुरवः पञ्चोत्तरकुरवः, एकोरुकादिषट्पञ्चाशद् अन्तर्वीपाश्चा-ऽकर्मभूमयो भूमिभूमयः सन्ति तत्र-नरकादि संसारकान्तारदुर्गान्त प्रापकस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपस्य मोक्षमार्गस्याव गन्तारः प्रणेतारः प्रदर्शयितारश्च परमर्षयो भगवन्त स्तीर्थकराः पञ्चदशसंख्यक भरतैरवतमहा विदेहक्षेत्रेषु समुत्पद्यन्ते । एतेष्वेव सकलकर्मक्षयं विधाय सिद्धिधामवजन्ति, न तु-हैमवतादिक्षेत्रेषु, तेषां तीर्थकरजन्मरहितत्वादकर्मभूमित्वमवसेयम् । उक्तञ्च प्रज्ञापनायां १ पदे ३२ सूत्रे से किं तं कम्मभूमगा १ कम्मभूमगा पण्णरसविहा पण्णेत्ता, तं जहा पंचहिं भरहेहिं, पंचहिं एरवरहि, पंचहिं महाविदेहेहिं । से किं तं अकम्मभूमगा १ अकम्मभूमगा तीसइविहा पण्णत्ता, तं जहा-पंचहिं हेमवएहिं पंचहिं तत्त्वार्थनियुक्ति-पिछले सूत्र में कर्मभूमिज म्लेच्छों का प्ररूपण किया गया है, अतएव यहाँ कर्मभूमियों को प्ररूपणा की जाती है कर्मों का क्षपण करने में अनुकूल जो भूमियां हैं, वे कर्मभूमियां कहलाती हैं। समस्त कर्मरूपी अग्नि को बुझाने के लिए या सिद्धि प्राप्त करने के लिए उपयुक्त भूमियां कर्मभूमियां हैं । वे भरत, ऐरवत और विदेह क्षेत्र हैं । . जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जम्बूद्वीप में एक भरत एक ऐरवत और एक विदेह क्षेत्र हैं। धातकीखंड में और अर्धपुष्कर द्वीप में दो-दो भरत, ऐरवत और विदेह क्षेत्र हैं । इस तरह पाँच भरत, पाँच ऐवत और पाँच विदेह, ये पन्द्रह क्षेत्र कर्मभूमि कहलाते हैं । इनके सिवाय हैमवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष और हैरण्यवतवर्ष पाँच-पाँच होनेसे बीस, पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु तथा छप्पन अन्तर्वीप, ये सब अकर्मभूमियाँ हैं। इन पन्द्रह भरत, ऐरवत और महाविदेह क्षेत्रों में नरकादि रूप दुर्गम संसार-अटवी के अन्त करने वाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्ग के ज्ञाता, प्रणेता और प्रदर्शक, परमर्षि भगवान् तीर्थकर उत्पन्न होते हैं । इन्ही कर्म भूमियों में उत्पन्न भव्यजीव सकल कर्मों का क्षय करके मोक्षधाम प्राप्त करते हैं । हैमवत आदि क्षेत्रों में उत्पन्न जीव मोक्ष नहीं प्राप्त करते, क्योकि वे अकर्मभूमि हैं । वहां तीर्थकर नहीं होते । प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद के ३२ वें सूत्र में कहा है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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